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घर या मकड़जाल का एक परिचित किस्सा

घर या मकड़जाल का एक परिचित किस्सा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ वो बना सकती है जंगल के वीराने में भी सुंदर बोलता हुआ घर इस कोने से या उस कोने से आगे से या पीछे की तरफ़ से जैसे भी देखोगे उसका हुनर बोलेगा खिड़कियों पर सजा होगा उसकी पसंद का गुलाबी या जामुनी फूलों वाला पर्दा जिसे अपने ख़्वाबों में टाँकना बचपन में ही वह सीख लेती है घर की खिड़कियों से आती है कभी बहुत शांत नदी से चलकर हवा और उसके खुले बाल इतरा उठते हैं तो कभी बंगाल के समंदर से उठा तूफ़ान पर्दों को झकझोर के रख देता है फिर भी वो खिड़कियाँ खुली रहती हैं हरदम उन्हीं से तो आ जाता है  मिलने चाँद आकाश के बहुत नर्म बिस्तर  से भी उठकर किसी रात पर क्या करे दिन में विद्रोही सूरज का तमतमाया लाल चेहरा भी उसे उतना ही भाता है वह गुनगुनाती है कुछ गिनी -चुनी चाँदनी रातों में कोई मधुर मिलन गीत बाक़ी दिन गूंगी दीवारों पर लाल स्याही से लिखती रहती है ऐसे ख़ामोश गीत जो अक्सर दफन हो जाते हैं अनारकली की बेबसी के साथ दीवारों की बंजर देह में छोड़ो  तुम भी कहाँ भटक गये मकड़ी हो या औरत बनाती है प्रायः बहुत

एक और इंदिरा. ......

एक और इंदिरा........ ------------------------------------------------------------- 19 नवंबर 2012.....बिहार के प्रसिद्ध छठ पर्व के सायंकालीन पहले अरग का दिन.....ऑपरेशन थियेटर में ऑपरेशन से पूर्व इसकी तैयारी करने वाले स्टाफ.....जच्चा का उत्साह वर्धन कर रहे थे....अपने काम के साथ साथ. ...'अच्छा आप रेडियो में काम करते हो'......आर जे हो ?.....नहीं ,न्यूज रीडर हूँ. ...ओके, कभी हमें भी ले चलिए.....ये दूसरा बेबी है ? हाँ....पहले से गर्ल चाइल्ड है? हाँ.........आज आपके यहाँ का पर्व है न ? देखना आपको बेटा होगा......और उसने बिना कुछ कहे मुस्कुरा दिया हल्के से।                 हल्की सी चेतना के बीच.... ऑपरेशन सक्सेस होने की सूचना मिली.....पर एक अजीब सा सन्नाटा पसर गया.....बात क्या है......किसी ने मुझे औपचारिक सूचना नहीं दी....बेबी स्वस्थ तो है न....उसी हालत में मुझे तरह तरह की आशंका होने लगी...पर पूछा नहीं पा रही थी पीठ के बल लेटे हुए.....शरीर के साथ होठ भी असमर्थ हो गये थे शायद....कुछ देर बाद सन्नाटे का रहस्य आखिर खुल ही गया.....सामने मेरी आँखों के ....एक छुई मुई सी  नई रचना ....न

बीती सदी का बचपन और हमारे हिस्से के खेल

बीती सदी का बचपन और हमारे हिस्से के खेल ---------------------------- उन  दिनों चाँद सितारों जड़ित खुला आसमान 'उनके' लिए था हमारे हिस्से में चूड़ियों के भीतर की परिधि का विधान था जन्म लेते ही निर्धारित हो चुके थे ज़िन्दगी के अनगिनत चक्रव्यूही फेरे सजाए गए घरौंदे में दिखलाए गए सुंदर चाहरदीवारियों के लंबे घेरे गुड्डे- गुड़ियों के खेल में समाहित थे रसोई के काम कराए गए ज़िंदा गुड़ियों को कड़ाही-कलछी की पहचान हर दिन संस्कारों  की निकलती थी नई परिभाषा खेलकूद में हिस्से को तरसती रहीं दिन ब दिन निखरतीं गृहशोभा रातों को उड़ती रहीं देखकर चिड़ियों की लंबी उड़ान उजालों की सड़क पर  सायकिल चलाना भी था अपराध उस समय अपने हिस्से के खेल सिर्फ़ खेल थे कठपुतलियाँ कहाँ जानती हैं उंगलियों का मकसद बाद में जब होश आ ही गया घड़ी की सूइयों की बुढ़िया चाल में तब जवां चाबियों ने खोले बंद खंडहरों के राज़ कि क्लास में फर्स्ट आने से ज़्यादा क्यों मिलती थी शाबाशी बेसन के हलवे ठीकठाक बना लेने पर और यह रहस्य भी कि लड़कियों के खिलौने क्यों होते थे अलग बंदूकों, गाड़ियों और हेलीकॉप्टरों क

ज़िन्दगी फिर से

थोड़ा सा रंग चुरा लेगी तो  रंगीन हो जाएगी ओढ़नी उसकी  सुना है बहुत उदास रहती है वो लड़की जिसका नाम हुआ करता था कभी ज़िन्दगी -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना

आधी आबादी का चुटकुला

              वे जो संवारती हैं कोई घर, उनका चुटकुला      **************************** "लड़ाकू होती हैं बीवियाँ पाकिस्तान की तरह  भारत जैसे सहनशील पति से जो हमेशा लड़ने को बेताब रहती हैं  " कुछ ऐसे ही चुटकुलों और महान शायरियों से सोशल मीडिया की दुनिया अपडेट रहती है   जिसमें पत्नी -निन्दा की नहीं होती है कोई  सीमारेखा  पुरूषों के ढेर सारे लाइक्स और वाहवाही के कमेंट्स से यह पटी रहती है  एक दिन ऐसी ही फूहड़ पत्नी -निन्दा से पड़ा मेरा भी वास्ता  जो ढेरों लाइक्स की गोद में बैठा झूम झूम इतरा रहा था  मुझसे यूं चुपचाप रहा न गया  आधुनिक सामंतों का दंभ सहा न गया  कुछ क्षणों बाद मेरे तरकश से भी एक तीर निकला  - "इस आभासी दुनिया में स्त्रियाँ भी मौज़ूद हैं   उनके दिल से न करें खूनखराबा चलिए उनकी न सही अपनी माँ बहनों की तो सोचिए  वे भी पत्नियाँ हैं किसी की   इसलिए सबका सामान्यीकरण  न कीजिए   माफ़ कीजिए  ज़माना मनुस्मृति से काफ़ी आगे बढ़ चुका है   इसलिए हमेशा गाड़ी के पिछले पहिए को दोष न दीजिए  पंक्चर अगला पहिया भी हो जाता है  अच्छा हो कि अपनी

मैग्नाकार्टा: बंद दरवाज़ों का

मैग्नाकार्टा :बंद दरवाज़ों का  ************************ एक दिन मिली उस लेखिका से  जिसकी एकमात्र बिटिया में ही  उसके जीवन की पूरी कृति शामिल थी  एक दिन मिली  उस वकील से  जिसकी दो बेटियों के नाम  लिखी हुई थी  उसकी ज़िन्दगी की पूरी वसीयत  एक दिन  उस अभिनेत्री से मिली  जिसने दो बेटियों के रंगमंच पर  छोड़ रखी थी  अपने नारीवादी अभिनय की अमिट छाप   कल एक डॉक्टर से मिली  जो अपनी नन्हीं बेटियों की तस्वीरें क्लिनिक में टांगे  दे रहा था नसीहतें मूर्ख भेड़ों को  आज मिली  एक अनपढ़ औरत से  जो कर रही थी  अपने पिता का अंतिम संस्कार  तमाम अमिट रिवाज़ों के बावजूद  कुल मिलाकर  उन औरतों और मर्दों से मैं मिलती जा रही हूँ अपने आसपास  जो गढ़ रहे हैं नई परिभाषाएं  हालांकि अब भी न्यूज चैनलों पर  दिखाए जा रहे हैं एक महानगर के  पुराने कुँएं में  मिली  दर्ज़नों  अजन्मी  बच्चियों की  अंग -भंग की हुई लाशों के वीभत्स दृश्य  या कूड़े के ढेर में मिली  किसी नवजात कन्या की अंतिम-सी साँसें  इन घिसे -पिटे दृश्यों के बीच  मैं नई परिभाषा

वो साँवली खुरदुरी -सी लड़की

वो साँवली खुरदुरी -सी लड़की --------------------------------------------- अमावस को तो नहीं जन्मी थी या अम्मा ने जामुन तो नहीं खा लिए थे ज़्यादा उबटन नहीं लगा था क्या बचपन में अब तो मर्दो के लिए भी आ गई है फेयरनेस क्रीम तू किस दुनिया में रहती है - पूछते हैं अक्सर लोग ऊपर से मुस्कुरा देती है टेढ़े चाँद की तरह  अंदर उबलती - उफनती धरती की बेटी संभाल कर रखती है शुभचिंतकों के ये क़ीमती दस्तावेज़ अंधेरे से मिलकर किसी रात तकिये को उड़ेल देती है ये उपदेश  सुबह भरती है चिड़ियों संग लंबी उड़ानें आकाश उसकी मुट्ठी में आ चुका है पर पास नहीं कर पाती  ड्राइंगरूम में लिया जानेवाला कोई इम्तिहान लड़खड़ाती -संभलती ट्रे में लाई गई चाय  पता नहीं कैसे 'डार्क' हो जाती है अक्सर  वह तो बड़े प्यार से बनाती है आनुपातिक चीनी और दूध वाली मीठी चाय  परंतु दर्शनार्थियों का मुख कसैला -सा हो जाता है प्याली नहीं होती कभी खाली चाय ठंढी हो उदासी की मोटी छाली ओढ़ लेती है हर असफल ड्रामे के बाद ज्ञानी पंडित पिता को सलाह दे जाते हैं रंगीन पत्थरों वाली अंगू

रहें न रहें हम

रहें न रहें हम -------- वह एक गुड़िया थी. ...माटी की नहीं, जीती - जागती ......लेकिन उस गुड़िया का संसार उस समय उजड़ गया ....जब पिता की असामयिक मौत ने उसके सिर पर पूरे परिवार का बोझ लाद दिया.....और वह गुड़िया अचानक से बड़ी हो गई.....स्कूल की फीस भरने के पैसे न थे ,इसलिए स्वयं स्कूल नहीं गई ...मराठी-हिन्दी फिल्मों में अभिनय और पार्श्व गायन कर अपने भाई -बहनों को स्कूल भेजा .....शास्त्रीय संगीत का रियाज़ ...जो पिता ने पाँच साल की उम्र में शुरू करवाया था....आगे चलकर वही काम आया ....आरंभ में उच्चारण दोष के कारण उपहास का पात्र बनी लता ने निरंतर अभ्यास और मेहनत  से जब अपना मुकाम हासिल कर लिया ...तब उन्हीं के गीत उच्चारण सीखने के लिए आदर्श बन गए ...इसे महज़ किस्मत का नाम देना मूर्खता है।            लताजी ने बहुत संघर्ष कर पहले से आसीन पार्श्व गायिकाओं के बीच अपनी जगह बनाई थी......फिर यह आरोप कैसे तर्कसंगत हो सकता है कि उन्होंने अपनी बहनों या अपनी समकालीन उभरती गायिकाओं के रास्ते रोके हों ....सबको अपनी जगह खुद बनानी पड़ती है ....शायद लता सर्वश्रेष्ठ होने के योग्य थीं,  इसलिए वे

इम्तिहान ज़िन्दगी के

इम्तिहान ज़िन्दगी के *************************** वे नहीं जानती हैं वज्रपात क्या होता है  या फिर पैरों तले ज़मीन का खिसकना अचानक टूटकर तारों का ग़ुमशुदा हो जाना या बहती हुई नदिया का बरसात में सूख जाना पर उन्हें पता हो चुका है बहुत पहले से कि इंतज़ार क्या होता है लेकिन वह इंतज़ार ही नहीं रहा न इसी का तो सबसे बड़ा सदमा है कि पापा का इंतज़ार अब नहीं होगा कभी जानती हैं पापा की दुलारी बेटियाँ पापा की ज़ान व्यर्थ थोड़े ही गई है यह सच है कि यादें आँसू साथ लाती हैं पर शहीद की यादें कलेजा पत्थर का माँगती हैं तो आँसुओं को फटकार दूर भगाना होगा और अपने पथ पर डटकर चलना होगा अब नहीं होगा मज़बूत बाहों का झूला न छुट्टियों में लगेगा खुशियों का मेला सिर पर उस घनी छाया के बिन जीना होगा कड़ी धूप में ही तपकर ख़ूब निखारना होगा ऐसे ही तो उनके सपनों को मुट्ठी में लाना होगा पीतल तो बिखरे हैं बहुत  खरा सोना बनना होगा यह तो पहला क़दम है बुझे  पाँवों का चलते चलते क़दमों के निशान बनाना होगा इम्तिहान ही तो है हर पल  ज़िंदगी का छोटे इम्तिहानों से  क्यों घबराना होगा चलो छोड़ दें ज़िदगी क

घोषणापत्र

घोषणापत्र  ------------------------ घूँघटों में  आँसू छिपे हैं खुशियों की उछलती हुई कुछ गेंदें भी घूँघटों के साथ आए हैं खाली बड़े बर्तन बर्तन इकट्ठे होकर आपस में फुसफुसाएंगे कोई अपना आँसू उड़ेल देगा कोई गेंद अपनी छोड़ देगा  सब आँसू बाँट लेंगे सब गेंदों से खेल लेंगे फिर बर्तन भर जाएंगे लबालब सबके चेहरों पर समभाव लिखे होंगे  पनघट छोड़ते समय  सब घूँघटों की आँखों में एक जुगनू होगी लडेंगी अंधेरे के ख़िलाफ़  अंधेरे में रहते हुए बाँटेंगी उषा -पर्व का प्रसाद सभी साथिनों के बीच कठिनतम व्रत ज़ारी है चुल्हे पर प्रसाद पक रहा है पूरी पवित्रता के साथ चीटियों और गिलहरियों को भी इधर आने की मनाही है पर अबकी बार  नहीं है यह पुरातन पर्व उनके लिए जिन्होंने घूँघट दिए हैं और घूँघटों के भीतर बूढ़े ताले में बंद कूपमंडूक दुनिया फुसफुसाहटों ने यही तय किया है सदियों चली लंबी वार्ताओं के बाद चकित मत हो  सज्जनों  उन्हें भी लिखना आ गया है अपने हिस्से का घोषणापत्र अब पढ़ने की बारी तुम्हारी है हाँ, पर ऐसी प्रतिक्रिया मत देना घूँघटों क

हारी नहीं नीरजा

भारत की अशोक चक्र प्राप्त बिटिया नीरजा भनोट (7 सितंबर 1963 - 5 सितंबर 1986 ) के प्रति एक श्रद्धांजलि हारी नहीं नीरजा ******************** वह लड़की  हाँ, वो लड़ी शर्म के ख़िलाफ़ डर के ख़िलाफ़ परंपरा के ख़िलाफ़ दहेज के ख़िलाफ़ अपने 'प्रताड़क परमेश्वर' के ख़िलाफ़ ज़माने की प्रतिकूल हवाओं के ख़िलाफ़ वह जीतती गई एक -एक क़दम  नापती हुई ज़मीन और आकाश की दूरी अब नरपिशाचों की बारी थी उसके भीतर सूझबूझ की शांत नदी बह रही थी साहस भी अनंत आसमानी हो चला था और वह उस विशाल विमान में एक जुझारू जटायु बन लड़ती रही रावणों से पंख नुचकर जख़्म रिसते रहे जीतना उसका तय था पर मृत्यु उसे अपने प्यार की तरह  छीन ले गई झटककर बस कुछ ही समय पहले तो जन्मदिवस की गोद से  रंगीन सपनों -सी मोमबत्तियाँ बुझ गईं जलने से पहले ही पथरायी माँ का अनमोल उपहार मुँह बाए बैठा रहा प्रतीक्षारत इस बार भी वही जीती थी एक क्या तीन सौ से अधिक अशोक चक्र कुर्बान हो जाएंगे वो दहशत में मरकर पुन: जी उठी  देशी और फिरंगी ज़िन्दगियाँ जहाँ भी होंगी फलती - फूलती अपन

भारतमाता के देश में

भारतमाता के देश में........................ ???????????????????????????? वे घोड़े नहीं जो बार - बार चाबुक चलाया जा रहा है वे भूली नहीं हैं जो मनुस्मृति  दोहराया जा रहा है वे हथियार नहीं जो राजनीति चमकाया जा रहा है वे अगरबत्ती नहीं कि पूजाघर महकाया जा रहा है वे कठपुतलियाँ नहीं जिन्हें मनमर्जी नचाया जा रहा है बेचने को है बहुत कुछ पर उन्हें बाज़ार बनाया जा रहा है वे औरते हैं हुजूर आज भी सिर्फ़ उन्हें अनुशासन का पाठ पढ़ाया जा रहा है सुना है ज़ोर से आजकल मेरा देश बदला जा रहा है -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना

नीले बॉर्डर के तले

फोटो साभार :AIR नीले बॉर्डर के तले  ----------------------------- प्यार की भूख  रोटी की भूख से होती है बड़ी  यही कहा था  उस ' निर्मल हृदय ' ने   जिसने उठाए थे सड़कों से  बेसहारा, अनाथों और ग़रीबों को  और अपनी एक -एक थपकी से  जीत लिया था मन सारी दुनिया का  नहीं बन पाता है हर कोई  उस नीले बॉर्डर वाली साड़ी जैसा ममत्व  की छाँव  जिसके लिए खुले हों हर पल कोई न कोई ठाँव  उसकी निश्छल मुस्कुराहट नहीं सीख पाईं  वे विश्व सुंदरियाँ भी  जिन्होंने लेकर उसका रटाया हुआ नाम  जीत लिए सुंदरता के सबसे बड़े तमगे  पर बन न पाईं वास्तव में उस जैसा सुंदर  उस पर फेंके गए आरोपों के पत्थर  पर वो चलती रही  सड़कों पर बिखरे 'कूड़ों 'को  अपने विशाल दामन में समेटे  क्योंकि असली 'संत ' खिलते रहते हैं  बेपरवाह फूल की कली* बनकर  बिखेरते हुए अपनी सुगंध ---------------------------------------- -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना *गोंझा का अर्थ होता है फूल की कली  एक श्रद्धांजलि मदर टेरेसा (एग्नेस गोंझा* बोयाजियू) के प्रति जन्म -26 अगस्त

यही वो समय तो है

यही वो समय तो है  --------------------------------- सूरज की ख़्वाहिशें हैं घर -घर  कोई पागलों -सा हर आहट पे चौकन्ना हो जाता है ढूंढता है अपनी उम्मीद के कदमों के निशान पर निराशा ज्य़ादा बलवान है  हताशा हताशा ...... और वह गला घोंट देता है  ज़मीन फोड़ ऊपर आने को आतुर नवांकुर का  कुछ सपने फिर अट्टहास करने की सजा  मृत्युदंड पाते हैं  बदलियाँ नागिन का भयानक रूप धर लेती हैं   चंदा को बार बार डँस लेती हैं  यानी तय है कि सूरज की आस में  चंदाएं हर रोज़ मारी जाती हैं  इतनी अंधेरी रातों में जब सो जाती है  बाक़ी दुनिया अपने - अपने दरवाजे़ बंद कर  कोई न कोई दरवाज़ा हर रात खुलता है  श्मशानों से बची रह गई कुछ चंदाएं   चमका देती हैं  घुप्प काला आसमान   एक साथ खुल उठते हैं दरवाज़े   कि  सूरज  का स्वागत कर लें   गूंज उठते हैं जयकारे    सारी लेखनियाँ  बन जाती हैं भांट -चारण   चंदाओं में भी सूरज -सा तेज आ गया है    यही तो वह समय है  जब सूरज न आए  तो  चंदा को बचाना ही होगा   'साक्षियों ' और 'सिंधुओं 'की ख़ातिर  रिवाज़ों को बदलना ही

वो सोलह साल

वो सोलह साल --------------------------------------------- तुम परिंदा थी, कैद में रही  तुमने उजाले की तलाश की  पर अंधेरे में अपने स्वर्णिम दिन काटे  दमन था उन फिज़ाओं की निशानी  जिसने लिख दी तुम्हारी  यह कहानी  चूड़ियों के ख़्वाबों को दरकिनार कर  रचा किसी तपस्विनी सा  तुमने  अपनी ज़िन्दगी का महाकाव्य  और कैसे चलती रही  निरंतर शांत बग़ावत  इक सफेद कबूतर का  निर्मम बहेलियों के घर में  ही   सोलह साल  हाँ, पूरे सोलह साल  कम नहीं होते  वो क्या जानें फैशन ढोनेवाले    जिन्हें आदत है शहादतों के बहाने  चौराहे पर बनी आलीशान मूर्तियों को  झूठे आँसुओं के संग नकली माला पहनाने की  हाँ, तुम सही हो  क्योंकि अब भी तुम्हारे साथ हैं वे लोग जिन्हें बुत नहीं चाहिए  ज़िंदा लड़ाके की दरकार है  तुम मेहंदी रचाओ सफेद हाथों में  लिखो  चटक लाल रंग का नाम अपने प्रियतम का अपनी मांग सजाओ बचे हुए सितारों से तुम्हें भी हक़ है वैसे ही जीने का   जैसे जीती हैं सबकी बेटियाँ  गाँधी के साथ लक्ष्मीबाई भी बनो  जो रोकेंगे   समय उनके गालों पर जड़ेगा ज़ोरदार  तमा

विंडो शॉपिंग

विंडो शॉपिंग ~~~~~~~~~~~~~~   फेसबुक पर  स्त्रियाँ  जो  हाय ,हलो या बेवज़ह चैटिंग का  नहीं देती जवाब  सनकी और घमंडियाँ  होती हैं  फेसबुक पर स्त्रियाँ जो  नहीं देती किसी पुरुष से जुड़ी अपनी पहचान  टूटे हुए घर की  बदमिज़ाज बदलियाँ  होती हैं  फेसबुक पर स्त्रियाँ जो     बदलती हैं रोज़ अपनी तस्वीरें   बदचलन टाइप की  आवारा तितलियाँ होती हैं  फेसबुक पर स्त्रियाँ जो   खाना - पकाना डालती हैं   उन्हें आता -जाता क्या है  बस बहनजीवालियाँ  होती हैं  फेसबुक पर स्त्रियाँ जो  तीखी ज़बान चलाती  मर्दों की सामंती सत्ता को ललकारती हैं    वे मूर्ख  परकटियाँ  होती हैं   हाँ, यही कहा करते हैं  मर्द वे  जिनकी खुद की स्त्रियाँ   नहीं होती हैं फेसबुक पर  या जिन्हें उनके नहीं होने का  सुंदर भ्रम  होता है   सचमुच, उनके लिए   फेसबुक की सारी स्त्रियाँ   चमचमाते भूमंडलीकृत बाज़ार  में   'विंडो शॉपिंग ' का मज़ा देती हैं .... सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना   03/08/2016

पिंपल्स

पिंपल्स ---------------------- जैसे किसी  पक्की सड़क पर तुम  टूटे - फूटे बरसाती गड्ढे थे या फिर मरम्मती के बाद दूर से दिखते  पैबंद लगे काले भद्दे धब्बे पर पिंपल्स  तेरा बहुत शुक्रिया कि ढूँढ़ते थे जो कौए बेदाग़ चाँद उनसे दूर रह गया मेरा बेदाग़ अंतर्मन ज़िन्दगी ने  बेवज़ह नहीं बाँध दी  उनसे मेरा पल्लू तुम आते रहे जाते रहे इस चेहरे पर  अपनी करामात दिखला  'फर्स्ट इंप्रेशन'को  दूर भगाए रहे पर उनके अस्वीकार से मैं निखरती रही हर बार दिनोंदिन अंदर ही अंदर बहुत ज़्यादा अपनी बदसूरती की क़ब्र पर  सपनों के ताजमहल गढ़ते हुए । -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना 27/7/16

यह ग़ज़ब समय है

यह ग़ज़ब समय है कि फेंके जा रहे हैं पत्थर किसी के भी मकान पर उतारे जा रहे हैं स्त्रियों के चरित्र के कपड़े सरे बाज़ार महज़ इसलिए कि उन्होंने नहीं उतारी तुम्हारी आरती और नहीं गाया तुम्हारा प्रशस्तिगान सुबहोशाम उनकी रही गुस्ताख़ी कि वे चलीं  उन रास्तों पर जिनपर चलने की पाबंदी रही सदियों तक हो सकता हो उन्होंने तुम्हारे फ़रमानों पर न किया हो अमल या दिया हो तुम्हारे बेसिरपैर क़ानूनों में दखल पर ऐसा भी क्या कि जहाँ देवियाँ पूजी जाती रही हों वहाँ किसी भी औरत को पहनाया जाने लगे वेश्या या रंडी का थू -थूदार  सामंती तमगा ऐसा लगता है कि तुम "उनकी" सोहबत में ज़्यादा रहते हो इसलिए विरुद्ध दिखनेवाली हर स्त्री को वेश्या कह रहे हो यह पहले असभ्य लोगों की फूहड़ बोली कहलाती थी अब क्यों सियासत की गली में रानी बन इठलाती जा रही है  ...... -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना

बायोडेटा (वैवाहिक)

बायोडेटा (वैवाहिक) ******************* नाम लड़की उम्र माफ़ करना षोडशी नहीं रही कद पुरूष से छोटा रंग पानी -सा योग्यता तितिक्षा शौक़ पुरुषोचित छोड़कर ज़िन्दगी रामभरोसे लक्ष्य वंशवर्द्धन शर्म आती है मगर यही रटाया है सबने पता पिंजड़े का कोई स्थायी पता नहीं होता विशेष जानकारी लेनी हो तो 'त्रिशंकु' से पूछ लें..... -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना 14 जुलाई, 2016

कुछ भी तो कहो

अब  कुछ देखो  तो कुछ कहो न  तब मूँछें छोटी हों या बड़ी  खूब रौबदार चौकीदार थीं  अब न गांधारी बनना है  न गूंगी का  अभिनय करना है  वक़्त छले जाने का बीत गया है   -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना

ख़ूबसूरत

ख़ूबसूरत ******** वक़्त के साथ बदल जाते हैं सूर्य, चंद्रमा और पृथ्वी और अगर ग़ौर से देखो तो बदल जाते हैं अपने अपने भगवान और बदल जाते हैं उन्हें खुश करने के तरीके फिर औरत तो हाड़ - मांस का आदिम टुकड़ा है न ताउम्र सागर तलाशती बहती बावरी नदी का दुखड़ा है न किसी ने जब अपनाया तो वह जान पाई कि वह भी ख़ूबसूरत है तमाम दाग़-धब्बों के बावजूद वह भी चाँद की शायद मूरत है हाँ, हो सकता है...तब वह परी दिखती रही हो क्योंकि कहते हैं लोग कि पहली मुलाक़ातों में अधिकांश औरतों के पास जादू की छड़ी होती है वक़्त के दिए हर ज़ख्म को ढोया अपनी नाजुक पीठ पर और चलती रही पगडंडियों और राजपथ पर वही हाथ थामे - थामे नन्ही किलकारियों का सुख ढोना भी ज़िन्दगी का निहायत ज़रूरी हिस्सा था आँखों के नीचे हर रोज़ बढ़ते काले पहाड़ पर  हांफकर चढ़ाई करके रात और दिन के बीच लुढकते - चढ़ते  देह बन गई पुरानी  उघड़ती फुटबॉल माथे पर लिख दिया अनवरत खेलती जिम्मेदारियों ने कभी न मिटनेवाली अनगिनत झुर्रियों के भूतहा खौफ़नाक नाम अब हर कोई माधुरी दीक्षित नहीं हो सकता न बरसाती रहे कृपा बोटाॅक्स की झुर्रीहरण सूइयाँ वह

चिड़िया गुम मत होना

चिड़िया गुम मत होना  *********************** हर मकान में एक खिड़की हो कम - से -कम खिड़की में खुला आसमान हो आसमान को कुछ ढँकता हुआ कोई बूढ़ा वृक्ष हो वृक्ष की  झूलती  मज़बूत डालियों पर उड़ने को तैयार कोई छोटी चिड़िया हो उसे एकटक निहारती खिड़की के अंदर एक और चिड़िया हो जिसके पंख निकले रहे हों अभी - अभी और सीख रही हो  खट्टी -मीठी ज़िन्दगी का नमकीन ककहरा आँखों में तैर रहे हों कुछ सोंधे सपने वह जलपरी की हसीन वेशभूषा में भाग रही हो मोतियों की पुरानी खोज़ में और होठ गा रहे हों धीमे धीमे 'हम होंगे क़ामयाब एक दिन ' अभी उसका गीत ख़त्म नहीं हुआ हो तभी अचानक से झन्नाटेदार आवाज़ आए कोई 'अरे कहाँ मर गई ' और वह चल पड़ी हो उलटे पाँव इकलौते भाई के लिए हलवा बनाने जो अभी - अभी आया हो मोहल्ले का क्रिकेट खेलकर फिर भी  रसोईघर से आ रही हो कलछी के संग अधूरे उड़ान -  गीत  का अगला अंतरा वह जानती है कि वृक्ष पर चिड़िया कल फिर आएगी फिर भी मनुहार करती है चिड़िया गुम मत होना तुम्हारे नाजुक पंखों पर  मेरी मज़बूत कहानी लिखी है !        -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना

ये वायदे सिन्दूरी हैं

ये  वायदे सिन्दूरी हैं ***************** पता नहीं आसमान से बिखरकर मेरे माथे पर सज आया या मेरे माथे से छिटककर आसमान को सँवार गया पर कोई सिन्दूरी शाम यूं निखर आई किसी नई नवेली दुल्हन के चेहरे पर ज्यों हल्दी की बरकरार हो चमक आँसुओं की बारिश से कई बार मायके की चुहलबाज और ग़मगीन स्मृतियाँ धुल कर ताज़ी हो जाने के बाद भी जानती हूँ कि तन्हा शाम होती है गिद्ध अगर तुम रहो आज की तरह हर शाम ताउम्र मेरे साथ गिद्ध वापस लौट जाएंगे उदास चलते रह जाएंगे काले बादल अपनी ढेरों असफल चाल मैं बन जाऊंगी यह सिन्दूरी आसमान और तुम मेरे माथे की अमिट पहचान ! -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना 21/06/2016 ****************************

घड़ी की सूइयाँ

घड़ी की सूइयाँ   *********** सुबह नौ बजे  काॅलेज जाती है लड़की  घर से निकलते वक़्त  उसकी माँ  हर रोज़ देती है  कोई नसीहत  और  नज़रों से बिल्कुल ओझल हो जाने पर  देखती है  दीवार पर टंगी घड़ी की सूइयाँ   लड़की के जाने के बाद  माँ के हाथ जुड़ जाते हैं  ईश्वर की तस्वीर के सामने  कुछ बड़बड़ाते हुए  फिर दिन भर निपटाती है  घर के छोटे - बड़े काम  कुछ गुनगुनाते हुए  अचानक रूक जाती है  अनायास  देखती है घड़ी की सूइयाँ  जब बजती है काॅलबेल  और दरवाजे़ पर खड़ी मिलती है  सुबह की अमानत  माँ के सूखे होठों पर आ जाती है  इत्मीनान की एक मुस्कुराहट   नहीं कोई रैली  नहीं कोई चक्का जाम  नहीं लगती आग  हमेशा  इस शहर में  फिर भी जाने क्यों  हर रोज़ माँ देखती रहती है बारंबार  घड़ी की सूइयाँ -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना

एक खतरनाक समय में

लावारिस

लावारिस -------------------------- ओ मेरी माँ ! शुक्रिया कि मैं ज़िंदा हूँ तुमने शुरू के महीनों में ही नहीं मार फेंकवाए टुकड़े- टुकड़े कर के हो सकता है अल्ट्रासाउंड वाले डाॅक्टर अंकल ने मेरी जगह मेरे भाई के आने की पक्की खुशख़बरी सुनाई होगी जो होता मेरे पिता के वंश का वाहक और लाता भविष्य में दहेज की मोटी रकम जो भी हो उस डॉक्टर अंकल को भी थैंक्स जिन लोगों ने भी देखा साक्षात् और टीवी पर मुझे यही कहा - मैं अच्छे - भले घर की दिखती हूँ तो बताओ न माँ अच्छे घर में इतनी कमी होती है क्या मुझ नन्ही सी ज़ान के लिए नहीं थी दूध की कटोरी दिल का कोई कोना न सही घर का कोई कोना तो रहा होगा जहाँ लग सकता था मेरा भी पालना सीख ही लेती अभावों में रहकर तुम्हारी तरह अपने आँसुओं को भी थामना जो भी हो माँ मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं तुम्हारी भी तो रही होगी कोई बहुत बड़ी मज़बूरी तुम्हारे मना करने पर भी मंडराए होंगे बन के चक्रवात तुम्हारे अपने ही बहुत ख़ास वरना किसकी मजाल जो तुम्हें अपने ही अंश को यूं त्यागना पड़ा हो अपने कलेजे पर पत्थर रखकर तपती सी धूप में इतनी बड़ी दु

नीड़ उजड़ने के बाद

नीड़ उजड़ने के बाद  ********************************** माँएं रोती हैं, बड़बड़ाती हैं आवारा कुत्तों के रोने के बीच तोड़ती हैं रह रहकर दिन भर भोंपू बने शहरों की रात की भुतहा खामोशी और थक - हारकर कोस लेती है अपनी फूटी हुई किस्मत को माँओं को यक़ीन नहीं है उजड़ गया है नीड़ उनका बिखर गया है तिनका तिनका दरअसल आंधियों को इतनी जल्दी आना न था घर में नई किलकारियों का गूंजना बाकी था नन्ही कोमल उंगलियों से जीर्ण उँगलियों का जुड़ना बाकी था माँएं चाहती थीं बहुओं को सौंपें परंपरा की विरासत सभ्यता की सुनहली बड़ी कुंजी पर उन्हें क्या पता था आज़ादी का नया मतलब जहाँ कौशल्या भी कैकेयी समझी जाती है माँओं ने जोड़ रखा था बवंडरों के बीच भी सांझा चुल्हा साल - दर-साल रोटी की सोंधी महक ने बांध रखा था थोड़े से खटासों के बीच भी रिश्तों - नातों की मीठी डोर माँएं रचाते रचाते गुड़ियों का ब्याह खुद दुल्हन बना दी जाती थीं निरक्षर, चिट्ठी बाँचने लायक या हाई स्कूल पहुंची माँएं हो जाती थीं चट्टान थोड़ी सी आमदनी में ही कर लेती थीं नून - तेल का जुगाड़ रखती थीं बच्चों के चेहरे पर मुस्

मलाला और बाबा

मलाला और बाबा ओ मलाला  ये तुमने क्या किया कि आज तक उन्हें ख़बर ही नहीं  इतने तेज चैनलों के होने के बावजूद  कि तुमने कौन सा तीर मार दिया  टेडी बियर से खेलने की उम्र में यूं ही  तुम्हारी झोली में आ गिरा  दुनिया का सबसे बड़ा तमगा  वे सिखलाते हैं लोगों को जीना पर  इत्ती सी बात का पता नहीं  कि लड़कियों का जीना कितना मुश्किल होता  है  अपने जन्म से पहले भी और  जन्म के बाद   सांसों के रूक जाने तक   उन्हें यह भी पता नहीं   कि अपने ही देश में हुआ था एक अधनंगा फ़कीर  (हालांकि उसने  कभी तमगा पाने का लोभ ही नहीं किया ) जिसने नारी शिक्षा को बताया था  पूरे परिवार , समाज और देश के लिए ज़रूरी   उफ.... उन्हें  यह भी पता नहीं  कि  लड़कियाँ भी बनी होती हैं हाड़-मांस  की   पढ़ाई की ललक उनमें भी वैसी ही होती है जैसे लड़कों की  कैसे सहा होगा तुमने   अपने स्कूलों को तोड़े जाने का ग़म    बाहर की दुनिया से छूटकर चाहरदीवारी  के भीतर रात -दिन का  तम   तालिबानी फ़रमानों के बीच पल -पल घुटता दम  कहाँ से आ गए दुनिया भर से दुआओं के लिए उठे वे हाथ  छलनी

निवेदन

निवेदन ---------------------- कभी पहनकर मेरा चेहरा अपने आईने में देखो चेहरे पर- अनगिनत लकीरें मिलेंगी जो अक्सर देती हैं उम्र का तकाजा कई कलियाँ बेज़ान पड़ी होंगी जो काल-कलवित हो जाती हैं खिलने से पहले ही भटकती हुई नदियाँ नहीं बता पाएंगी अपना  पता जो मिल ही नहीं पातीं कभी अपने सागर से आँखों के कोटरों के नीचे कई घरेलू नुस्खों के बावजूद शान से खड़े काले पहाड़ पढ़ा डालेंगे सारा भूगोल पर कानों को मत देखना जो सुनते - सुनते बहुतेरे उपदेश सुन्न पड़ गए हैं एकदम से और टूटपूंजिया रक्षा गार्डों की तरह दिख रहे हैं बड़ी मुस्तैदी से तैनात हाँ, छूकर उंगलियों से सुनना सूखी हुई  पर कभी गुलाबी रही दो पंखुड़ियों के बीच से धीमी-सी आवाज़ में किसी ज़माने का वही पुराना गीत जिसके घिसट रहे शब्दों में अब भी मौजूद हैं कुछ गुमशुदा अरमानों के ढहते बिखरते पल - पल मिट्टी होते खंडहर ! ------------- -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना तस्वीर गुगल से साभार 

अधेड़ औरतें

अधेड़ औरतें उनकी  ज़िन्दगी में हरे-भरे झुरमुट हैं  झुरमुट में चिड़ियों का मंगलगान है  मंगलगान में बच्चों की मुस्कान है  मुस्कान पर ही पूरी उम्र निस्सार है  इस उम्र में बीते हुनर का अहसास है  वे घरों का मज़बूत स्थायी आधार हैं   सृष्टि का अनुपम सुंदर  उपहार है  उनमें कलाकृतियों का भंडार है    पर ग़ौर से देखो ज़रा उनमें सन्नाटे से भरा रिक्त स्थान है  रिक्त स्थान में गुम हुआ आकाश है  आकाश में चिड़ियों की अधूरी उड़ान है  इस उड़ान में  क़ब्र में सोयी पहचान है                   -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना

धरा के बारे में

धरा के बारे में ************************ तपती है धरा दिन भर जाने किसके लिए उसने पाना नहीं जाना कभी बिल्कुल माँ की तरह बस खोया है अपना रूप- रंग, आकार जानती है वह पल-पल खोते -खोते मिट जाएगी एक दिन इस ब्रह्मांड में फिर भी उसे अच्छा लगता है मिट जाना शायद उनके लिए जो उसके अहसानों से बेफ़िक्र याद नहीं रखते उसका नाम या यह अहसास कि बीमार भी हो सकती है कभी दिन-रात खटने वाली बूढ़ी माँ ! -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना (5 जून, 1999 को लिखित छोटी सी कविता) फोटो इंटरनेट से साभार

.............तो बची रहेगी पूजा

सुना है  एक अमीर ने , कर दिया है  महादान दिया है अपनी बिटिया को, बहुत बड़ा ईनाम चर्चा बहुत हुई  उसकी ,   हो तुम भी  सावधान  सीखो समाज के रहनुमाओं, बेटी का रखो मान क्या हुआ  जो नहीं हम, जुकरबर्ग जैसा धनवान पूजते थे हम भी  उन्हें , घरों  की  थी आन-शान सुनो ग़ौर से अजन्मी चीखें ,  यूं मत बनो हैवान  नन्हीं लाशों से पटी है धरती,   कहाँ गया इंसान  हमने तो कर दी है ज़िन्दगी, अपनी बेटियों के नाम छेड़ते हैं फिर भी लोग, कब लाओगे घर का  चिराग़  अरे नादानों, फेंक दो, सवाल, कैंची- तेज औजार  खुद के अंदर झांको ,फिर हो गौरी का  मंत्रोच्चार कल ढूंढ़ते रह जाओगे ,  बेटों के  शरीक-ए-हयात  बड़ी कीमती हैं बेटियाँ, बचा लो न घर घर का चाँद  -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना,  चैत्र महाष्टमी ,2016

अहसान जीने के लिए

इस बार संकल्प लिया था रात ने नहीं रोएगी चाहे गिर जाए माथे पर बज्र या धँस जाए पैरों के नीचे की ज़मीन पर रात रोई फूट फूट कर जब नहीं आया चाँद गिर गया था माथे पर पूरा आकाश और मर गई घुट घुटकर बस कहने को सुबह हुई थी चाहे न हो सचमुच प्यार बस इतना करना अहसान आँसुओं की थोड़ी कद्र कर लेना जी लेगी थोड़ा और अभागी रात ! -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना चित्र इंटरनेट से साभार।

ये चिराग़ बुझ रहे हैं

ये चिराग़ बुझ रहे हैं ---------------------------------------------------------------------- ओ माहज़बी इतना दर्द कहाँ से लिया था उधार काली  बदलियों  से खामोश नदियों से या फिर सागर की उफनती नमकीन लहरों से  अरे हाँ, सुना है  तुम्हारे पिता को चाहिये था एक कमाऊ पूत शायद इसलिए तुम्हारी आपा के बाद तुम्हारे अनपेक्षित आगमन पर दे दिया था  तुम्हें यतीमखाने का कारावास  वो तो तुम्हारी माँ थीं जो  हर माँ की तरह नहीं जानती थीं  बेटे और बेटी को जन्माने की पीड़ा  या अपनी ही देह के टुकड़ों के बीच का अंतर  उनके आँसू ही खींच लाए थे तुम्हें फिर से अपने आंगन    अभी तो तुम्हारे खेलने- कूदने की उमर हुई थी न  अभी -अभी तो तुम्हारे पंख निकले होंगे  पढ़ाई -लिखाई छोड़कर  निस्संदेह अच्छा नहीं लगा होगा क़ैद होना  लाइट .....कैमरा....एक्शन .....की ऊबाऊ  दिनचर्या में  चंद पैसों की ख़ातिर बेचना अपना बचपन  इसलिए तुम्हारे अबोध मन को  एक पिता ही पहला 'विलेन' नज़र आया होगा  उफ्फ़.... कामयाबी जल्दी कहाँ मिलती है  तुमने भी तो घिसे होंगे कितने पुराने  चप्प

आधुनिक मीरा :परिचय इतना....

महादेवी वर्मा (26 मार्च 1907- 11 सितंबर 1987): व ह प्रसिद्ध कवयित्री रहीं....आधुनिक हिन्दी साहित्य में शायद सबसे प्रसिद्ध .....वह छायावाद के चार प्रमुख स्तंभों में एकमात्र महिला प्रतिनिधि रहीं....साहित्य अकादमी की फेलो बनने वाली पहली महिला भी......उन्हें साहित्य का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला.....पर यही परिचय नहीं हो सकता उस बदली का जिसे विस्तृत नभ का कोई कोना अपना नज़र नहीं आता ....सही मायने में इस बदली ने जन्म ही लिया था नव जीवन अंकुर को सर्वत्र प्रस्फुटित करने के लिए.....वह आधुनिक भारत में स्त्री विमर्श की जननी ही नहीं थीं. ...वरन् उनका संपूर्ण जीवन ही स्त्री विमर्श की पाठशाला है.                                 सुनने में बड़ा अजीब लगता है कि महादेवी वर्मा जी के पूर्व लगभग 200 वर्षों तक उनके परिवार में किसी कन्या का जन्म नहीं हुआ था या फिर जन्म होते ही कन्याएं मार दी जाती थीं.....परन्तु अगर उस समय के सामाजिक परिवेश को देखें तो उतना अजीब भी नहीं लगता है. ...खासकर आज के इक्कीसवीं सदी के वैज्ञानिक समाज की  तुलना में ....जहाँ कोख में ही कन्या का किस्सा तमाम हो जाता