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मार्च, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ये चिराग़ बुझ रहे हैं

ये चिराग़ बुझ रहे हैं ---------------------------------------------------------------------- ओ माहज़बी इतना दर्द कहाँ से लिया था उधार काली  बदलियों  से खामोश नदियों से या फिर सागर की उफनती नमकीन लहरों से  अरे हाँ, सुना है  तुम्हारे पिता को चाहिये था एक कमाऊ पूत शायद इसलिए तुम्हारी आपा के बाद तुम्हारे अनपेक्षित आगमन पर दे दिया था  तुम्हें यतीमखाने का कारावास  वो तो तुम्हारी माँ थीं जो  हर माँ की तरह नहीं जानती थीं  बेटे और बेटी को जन्माने की पीड़ा  या अपनी ही देह के टुकड़ों के बीच का अंतर  उनके आँसू ही खींच लाए थे तुम्हें फिर से अपने आंगन    अभी तो तुम्हारे खेलने- कूदने की उमर हुई थी न  अभी -अभी तो तुम्हारे पंख निकले होंगे  पढ़ाई -लिखाई छोड़कर  निस्संदेह अच्छा नहीं लगा होगा क़ैद होना  लाइट .....कैमरा....एक्शन .....की ऊबाऊ  दिनचर्या में  चंद पैसों की ख़ातिर बेचना अपना बचपन  इसलिए तुम्हारे अबोध मन को  एक पिता ही पहला 'विलेन' नज़र आया होगा  उफ्फ़.... कामयाबी जल्दी कहाँ मिलती है  तुमने भी तो घिसे होंगे कितने पुराने  चप्प

आधुनिक मीरा :परिचय इतना....

महादेवी वर्मा (26 मार्च 1907- 11 सितंबर 1987): व ह प्रसिद्ध कवयित्री रहीं....आधुनिक हिन्दी साहित्य में शायद सबसे प्रसिद्ध .....वह छायावाद के चार प्रमुख स्तंभों में एकमात्र महिला प्रतिनिधि रहीं....साहित्य अकादमी की फेलो बनने वाली पहली महिला भी......उन्हें साहित्य का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला.....पर यही परिचय नहीं हो सकता उस बदली का जिसे विस्तृत नभ का कोई कोना अपना नज़र नहीं आता ....सही मायने में इस बदली ने जन्म ही लिया था नव जीवन अंकुर को सर्वत्र प्रस्फुटित करने के लिए.....वह आधुनिक भारत में स्त्री विमर्श की जननी ही नहीं थीं. ...वरन् उनका संपूर्ण जीवन ही स्त्री विमर्श की पाठशाला है.                                 सुनने में बड़ा अजीब लगता है कि महादेवी वर्मा जी के पूर्व लगभग 200 वर्षों तक उनके परिवार में किसी कन्या का जन्म नहीं हुआ था या फिर जन्म होते ही कन्याएं मार दी जाती थीं.....परन्तु अगर उस समय के सामाजिक परिवेश को देखें तो उतना अजीब भी नहीं लगता है. ...खासकर आज के इक्कीसवीं सदी के वैज्ञानिक समाज की  तुलना में ....जहाँ कोख में ही कन्या का किस्सा तमाम हो जाता

तितलियाँ

  "आज  फूलों पर इस कदर प्यार आया मन अपना क़रीब से उन्हें निहार आया" फूल हमारे जीवन के काफ़ी क़रीब होते हैं....रंग-बिरंगे फूल भला किसे प्यारे नहीं होते हैं ......पर फूलों को देखने का एक दूसरा नजरिया भी है.....मैं जब जब फूलों को देखती                                 हूँ.....मुझे उनमें इस दुनिया की बेटियाँ नज़र                              आती हैं.....                                      .दरअसल फूलों और बेटियो को ज़िन्दगी दो बार मिलती है. ....फूलों को नर्सरी वाले बड़ी लगन से उगाते हैं. ...फिर खाद - पानी देकर बड़ा करते हैं. ....और हम सब  वहां जाँच-परख   कर  अपने घर ले आते हैं. ...अपने यहाँ उसे अपने परिवेश में ढाल कर  निखारने की कोशिश करते हैं......बेटियाँ भी कहीं जन्म लेती है.....किन्हीं की आँखों का तारा होती हैं. ....यथासामर्थ्य  परवरिश पाती हैं. .....पर संवारना उन्हें कोई दूसरा घर होता है. .                              इसलिए बेटियों की इस मुश्किल ज़िन्दगी को सभी समझें......और उचित सम्मान दें तो तभी वह निखरेगी इन फूलों की तरह......हाँ, थोड़ा वक़्त लगता है......फूलों

हवा से संवाद

एक दिन हवा ने पूछा मुझसे मेरा पता मैं पल भर घबड़ाई फिर कहा रूक जा थोड़ी देर पहले किसी ने पूछा नहीं ढूंढ़ कर बताती हूँ मैं ढूंढने लगी अपना पता उन्हीं हरी - भरी वादियों में जहाँ मैं जाने कब से खड़ी थी पर मिला नहीं कोई निशान शायद वह वक़्त की मुट्ठी में  कहीं कैद पड़ा था मैं पलकें झुकाए निरूत्तर रही हवा ज़ोर से खिलखिलाई और धीरे से बोली  तू तो लगती है मेरी ही सहेली जो बस भटकती रहती है पर्वतों, घाटियों और कंक्रीटी वीथियों में अपने पते से बिल्कुल बेख़बर ! - सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना पुरानी डायरी से 08 / 03 / 16 *हवा से संवाद

कलियों से कोई पूछता हँसती हैं या वो रोती हैं

*   ' कलियों से कोई पूछता हँसती हैं या वो रोती है ' _____________________________ उनकी आहट सुनाई दे रही है हालांकि उनके पाँवों में कोई पायल नहीं हैं दिख रहे हैं उनके खुरदरे हुए हाथ जिनमें अब नहीं रहीं भारी भरकम चूड़ियाँ वे कुछ बोलना चाहती हैं शायद कोई आवाहन गीत भी गाएंगी आँसू पोंछ कर तहखाने में रोनी सूरत  बंद कर आई हैं हँसेंगी , बोलेंगी, बतियाएंगी भी  सबसे  क्योंकि उनका सबसे बड़ा उत्सव आ रहा है सुनो ध्यान से उन्हें हाँ ,मार्च का महीना आ गया है       - सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना        *शीर्षक 'अनुपमा' फिल्म के प्रसिद्ध गीत से

बड़ी उंगलियाँ, छोटी उंगलियाँ

बड़ी उंगलियाँ, छोटी उंगलियाँ ________________________ याद आ रही हैं तुम्हारी उंगलियाँ जिन्हें थामे सीख गईं मेरी उंगलियाँ तय करना कंटीले रास्ते बचना तीखी धूप से तूफानों से लड़ना और सोचना बड़ी बड़ी बातें सच बड़ी जादूगर तुम्हारी उंगलियाँ। पता नहीं कब सहेली बन गईं तुम्हारी उंगलियाँ-मेरी उंगलियाँ पीढ़ीगत मतभेदों के बावजूद कांटों की चुभन पर जब बहते थे आंसू चुपचाप मेरे पोंछ डालतीं आंसू तुम्हारी ही रूमाली उंगलियाँ । वक्त़ की सरपट चाल में मेरी उंगलियाँ जवान हो गईं और तुम्हारी बूढ़ी सी जिनपर वक्त़ के बेरहम घावों के पड़े हैं भद्दे से निशान तुम उन्हें झुर्रियां कहकर टाल देती हो अक्सर पर उन घावों की टीस महसूस कर सकती हैं मेरी उंगलियाँ। काश मेरी उंगलियाँ मज़बूत हों इतनी कि थाम सकें तुम्हारी उंगलियाँ माँ और तुम शेष कठिन रास्ते तय कर सको आसानी से, बेहिचक क्योंकि जुड़ी रहती हैं सदा बड़ी उंगलियाँ, छोटी उंगलियाँ।                       -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना