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वह भी एक जश्न था .........

वह भी एक जश्न था ........... *************************** वह तिल -तिल कर कैसे जली होगी  क्या वह कोई दीवानी परवाना  थी  जो दूर किसी शमा की तरफ़ खिंंची हुई  खुद -ब -खुद यूंं ही बेसुध  चली गई थी   सुना है ,होता था उनका सोलहो श्रृंगार  गाए जाते थे वैसे ही सभी मंगलाचार  ज्यों उल्लासित दुल्हन का हो रहा हो ब्याह  जा रही हो पहली बार प्रियतम के द्वार  बज रहे थे ज़ोर से ढोल -नगाड़े -नौबत लगातार   पंडित कर रहे थे उच्च ध्वनि में मंत्रोच्चार  आग की ऊँची लपटों और धुएँ से सजा था काला आसमान  अंधा -बहरा हुआ था मौजूद वहाँ हर इंसान  तिल -तिल कर जलकर वह चीखी थी  कई बार  मृत पति की सेज पर धकेली गई थी जो लाचार  बाहर तैनात थे लठैत की शक्ल में कसाई मूंछदार  भागती हिरणी को अंदर खदेड़ने को मुश्तैदी से तैयार  वह जलती रही झुलसती रही ,रिश्ते हुए तार - तार  पुत्र के शोक में डूबे थे ,पर वधू थी दूजे घर की नार  चमक उठे थे उस पल कई गर्वित राजपूती भाल  जब जलाई गई थी एक ज़िंदा औरत सती माई के नाम  शायद नहीं रहा था मर्दों को ज़िंदा जलने की पीड़ा का ज्ञान  जिनके लिए

जींस - मोबाइल, ना बाबा न !

जींस - मोबाइल  ....ना बाबा ना ! *************************** ना बाबा ना  हम हैं  बड़ी संस्कारी लड़कियाँ   पिता के माथे की लाज बेटियाँ  हम वही अपनाएंगी  जो तुम रटाओगे  तुम ठहरे शिक्षक बड़े ज्ञानी  माँओं  और दादियों ने पहनी थी साड़ी  अब हमारी  है बारी   साड़ियों ने की है इतनी मेहरबानी   द्रौपदी की लाज बचाई या उतारी  पता नहीं फिर भी सुंदर कहानी   मोबाइल भी नहीं रखेंगे  वरना बिगड़ जाएंगी हम   बस लड़कों को बिगड़ने दो  क्योंकि यह उनका जन्मसिद्ध अधिकार है  और देखो न अगर मोबाइल रख लिया  अपने पास  तो टूट जाएगा तुम्हारे द्वारा फैलाया गया बहुत सुन्दर भ्रम  कि तुम्हारी स्मृतियों और धर्मग्रंथों  के अनुपालन वाली दुनिया बहुत सुन्दर है  और हम देख लेंगी तुम्हारे जानवरों के घृणित वीभत्स कुकर्म   कि  एक साल की गुड़िया नहीं महफ़ूज इस नरक में  और शर्म -लाज से बहुत ऊपर उठ चुकी सौ साल की बूढ़ी औरत  के जीवित जिस्म को भी  बिना पंखों वाले गिद्ध नोच डालते हैं बेरहमी से   हे शिक्षकों   बचा क्या रहा है अब ढँकने को  अपने लड़कों को सिखाओ न  कि भेड़िये और गिद

नहीं ये फ़ाहियानों और ह्वेनसांगों का वृतांत

नहीं यह फ़ाहियानों और ह्वेनसांगों का वृतांत *********************** सुना है  कि अपने देश से खत्म हो गया है  जातिवाद, भेदभाव और छुआछूत का कहर  सब मिलजुल के रहते हैं हर गाँव -शहर  सच है क्या ,नागरिकों  ऐसी कितनी सावित्रियाँ  मारी जाती हैं हर रोज़  कभी मानसिक तौर पर  कभी शारीरिक रूप से  ख़बर भी नहीं बन पाती  कि एक अजन्मा बच्चा भी  मारा गया है असमय  सदियों से नफ़रत की धधकती आग में  हार गया है कोई अभिमन्यु कहीं  प्रथम चक्रव्यूह के आने से पहले  मुझे पता नहीं क्यों  स्मरण आ रहा है  वट सावित्री व्रत  और वट वृक्ष के चारों ओर  परिक्रमा करती  सावित्री और सत्यवान को  बड़ी निष्ठा से पूजती औरतें  और खोज रही हूँ उनमें  उस हत्यारी ठकुराइन का चेहरा  कि कभी मांगा होगा उसने भी  सदा के लिए अपने पति का साथ  और अपने वीर पुत्र का सौभाग्य  फिर स्मरण हो आए हैं अनायास  प्राचीन इतिहास के वे अध्याय कि जानती होगी शायद वो ठकुराइन  पुरखों का काला इतिहास  कि बसती थीं तब  शहर से बाहर ही  अस्पृश्यों की 'गंदी' बस्तियाँ  क्योंकि दूषित

माथे पे सिंदूरी सूरत

माथे पे सिंदूरी सूरत ....... आज देश का एक बड़ा तबका भुखमरी, ग़रीबी, बेकारी ,साम्प्रदायिक व जातीय हिंसा जैसी समस्याओं से जूझ रहा है.... ऐसे में भी कुछ लोगों का शगल बन चुका है ...बेमतलब की बातों को हवा देकर नारी मुक्ति का नाम देना ....आश्चर्य तो तब होता है जब पुरुषों के हस्तक्षेप पर उन्हें  दुत्कारकर मेरी मर्जी कहने वाली तथाकथित आधुनिक नारीवादी महिलाएं भी इस मुद्दे को गंभीर बना रही हैं ...सोशल मीडिया में संग्राम छिड़ गया है .....सिंदूर के मुद्दे पर .....भ्रूण हत्या से लेकर स्त्री जाति की  शिक्षा और आत्मनिर्भरता के मुद्दे उनके लिए बासी पड़ चुके हैं .....अब हाॅट टाॅपिक है पर्व -त्योहारों का विरोध और बस इसे  स्त्रियों की गुलामी से जोड़ना ....इस तरह प्रगतिशीलता का लबादा ओढ़ना ......सोशल मीडिया की इस भूमिका को देखकर निराशा होती है   हर पर्व त्योहार अंधविश्वास नहीं होता है ...न ही कट्टरपंथी तत्वों का प्रायोजित संस्कार ......हाँ,उसमें  दूरबीन लेकर विज्ञान की थ्योरी खोजेंगे तो निराशा ज़रूर हाथ लगेगी .....यह आस्था की बात होती है ... और यह आस्था एक दिन की बनी हुई नहीं होती है ....सदियों की

वो आँखें बोलती हैं

वो आँखें बोलती हैं ..... उन दिनों मैं चौथी कक्षा की छात्रा थी .....जब उस 31 साल की महान अदाकारा का निधन हुआ था .....उस वक़्त तक मैंने उनकी कुछ ही फ़िल्में देखी थी....' आखिर क्यों ' 'मंथन ' 'भींगी पलकें 'और 'मिर्च मसाला '......वो भी दूरदर्शन के सौजन्य से .....पर वे मुझ पर अमिट छाप छोड़ चुकी थीं.... इसलिए जब यह मनहूस ख़बर सुनी ....तो सहज विश्वास नहीं हुआ.....  बाद में धीरे - धीरे उनकी और भी फिल्में देखी .....और वे झकझोरती रहीं ....अपने दमदार अभिनय से.... 'मंथन 'फिल्म का दुग्ध क्रांति से संबंधित गाना "मेरो गाम काथा पारे ,जहाँ दूध की नदिया बाहे "टीवी पर अक्सर बजता रहा ....और वे हम सबकी नज़रों के सामने रहीं .... साँवली त्वचा का ऐसा जादू..... बोलती आँखों का ऐसा सम्मोहन ...राष्ट्रीय पुरस्कारों का दोहरा सम्मान ....एक प्रखर नारीवादी और मराठी समाचार-वाचिका से समानांतर और व्यावसायिक सिनेमा के 80 अध्यायों पर अंकित सुनहरे नाम को श्रद्धांजलि .....हाँ ,स्मिता पाटिल !यूं तो लगभग सभी पुरानी अभिनेत्रियाँ मुझे प्रिय रही हैं.... पर आप इन सबसे अलग ह

चीज़ ....माल ...या टनाटन !

चीज़ ....माल ....या टनाटन ! _______________________ बड़ा पाॅपुलर हुआ था एक फिल्मी गाना वो शायद नब्बे का दौर था 'तू चीज़ बड़ी है मस्त ' और कुछ मर्दों को मिल गया था जैसे सर्टिफ़िकेट लड़कियों और औरतों को चीज़ मानने का यह चीज़ 'चीज' से भी मुलायम होती थी जिसे आता नहीं था प्रतिकार करना सपेरे की धुन पर नागिन सी झूम जाती थी खयालों में ही सही किसी वशीकरण यंत्र का उम्दा विज्ञापन लगती थी फिर माॅल संस्कृति के आगमन पर वे विंडो शाॅपिंग का सेक्सी माल हो गईं अब टनाटन और टंच दिखने लगी हैं देश के सठियाए कर्णधारों को पर उन्हें क्या जो गढ़ते हैं संबोधन और अद्भुत विशेषण उन्होंने नहीं सुना कभी धड़कते सीनों का अरमान कभी देखी नहीं गौर से पंख कटे चिड़ियों की उड़ान कभी पूछा नहीं मसली गई कलियों का हाल कभी छोड़ा नहीं तितलियों को बाग में आज़ाद बस वे जानते हैं औरत का औरत होना औरत होना मने कठपुतली कला का ज़िंदा होना कहा हँसो तो हँसना कहा रो तो रोना ज़बान उसकी और संवाद अपना खूब सजाया फिर नचाया और मन को जीभर बहलाया जी भर गया तो नए चेहरे ले आया पुराने की जगह अक्स

तुम्हें लज्जा कभी नहीं आती

तुम्हें लज्जा कभी नहीं आती  ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ क्या नाम दूँ  तुम्हें  दुर्योधन,दुःशासन या  कलियुग का कुलनाशक  नाम देने से भी क्या फ़र्क पड़ता है  पत्थरों  पर कहाँ असर होता है    तुम्हें तो लज्जा कभी नहीं आती  देवी की आराधना तुमने भी की होगी  क्या माँगा होगा गिड़गिड़ाकर उसके चरणों में  धन -बल या फिर कोई छल  देखी तो कभी होगी अलबम में  अपनी माँ की जवानी की तस्वीर  क्या तुम्हें वह सूरत उस वक़्त नज़र नहीं आती  जब अपने आसान 'शिकार'  पर हमला करते हुए  लज्जा कभी नहीं आती   तुम्हारी भी कोई बहन कहीं  बंद कमरे की घुटन तजकर  हर शाम की सुहानी हवा में  थोड़ी देर  आज़ाद चिड़िया बन जाना चाहती होगी  क्या तुमने कतर दिए हैं उसके सफेद पंख या बाँध दी हैं बेड़ियाँ उसके नाज़ुक पाँवों में तुम्हें अपनी स्वच्छंदता को झूठी मर्दानगी बताते हुए  लज्जा कभी नहीं आती  सुना है कि खत्म हो रहे हैं जंगल  और खत्म हो रहे हैं भेड़िये  तुम किस प्रजाति के हो बहुरूपिये  बतला दो न  ताकि कल को तुम्हारी बेटियाँ भी  ईजाद कर रख सकें ऐसे हथियार  जो

चमकती रहे हिन्दी

हिन्दी दिवस की बहुत बधाई  सभी पाठक मित्रों को ....हिन्दीभाषी होने के कारण ही शायद मैं यहाँ हूँ और इतने व्यापक क्षेत्र तक अपनी बात पहुँचा पा रही हूँ। बहुत अच्छा लगता है अपनी बात कहने में अपनी मातृभाषा में .... यूँ तो मैं एक भोजपुरीभाषी क्षेत्र से संबंधित हूँ ....इसलिए हिन्दी पर इसका असर बिल्कुल स्वाभाविक है ...क्षेत्रीय बोलियाँ और भाषाएं हमारी हिन्दी के लिए ख़तरा नहीं जैसा कि आजकल कई विद्वान इस विवाद पर कमर कसे हुए हैं ....इससे हिन्दी और भी समृद्ध होती है और यह विविधता इसे बहुत सुंदर बनाती है ....शायद सचमुच की राष्ट्रभाषा की सारी ख़ूबसूरतियों को समेटे हुए ....  कुछ लोग हिन्दी को लेकर अधिक ही चिंतित हो जाते हैं .... पर अतिशुद्धतावाद का यह आग्रह ही इसकी नैया को डूबो भी सकता है क्योंकि यह अभी भी मंझधार में खड़ी है ....और बहुत दूर किनारे हैं ...कुछ लचीला रूख तो हो  ....कि सब इसकी मिठास को पहचान सकें न कि इसे अड़ियल खड़ूस मास्टरनी के रूप में दूर से ही देखकर भाग खड़े हों . कुछ लोग आज के दिन सवाल उठाते हैं कि अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने वाले अभिभावक भी हिन्दी द

कछुए के पाँव पे

कछुए के पाँव पे  सुना है  कोई मुझे जानता नहीं  कोई पहचानता नहीं  जैसे आ गई हूँ  अपने कुनबे से बिछड़कर  एक बिल्कुल नए इलाक़े में  तो किसने कहा था मुझसे  ले लो अल्पविराम  जहाँ छोटे -से अंतराल में  बदल जाती है पूरी दुनिया  कुचल देते हैं बेरहमी से  रेस के घोड़े  तो क्या  मैं नहीं तनिक शर्मिंदा हूँ  अभी भी मैं ज़िंदा हूँ  रेस के घोड़ों के बीच  कछुए के पाँव पे चलते हुए  सूरज के साथ टहलते हुए  ! सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना  *तस्वीर गूगल से साभार 

गर्व से कहो हम इंसान हैं ....काश !

गर्व से कहो हम इंसान हैं ....काश ! ********************* मैं ढूंढ रही थी  इस आभासी दुनिया में  इंसानियत का एक समूह  जिसके चेहरे पर न चमकता हो किसी कायस्थ, ब्राह्मण, राजपूत,बनिए  या दलित का  अति गर्वित - सा भाल  जिसके हुँकारित हाथों में नहीं हो चटक भगवा ध्वज या जिसकी अकड़ी हुई मीनार पर  नहीं लहरा रहा हो झूमकर  हरियाला मज़हबी झंडा  मेरी उँगलियाँ थककर  सो गईं गूगल पर सर्च करते करते  बीते कई दिनों से सोच रही हूँ मैं ही पागल या निरा नादान हूँ अब तो सांझा चूल्हों के किस्से पुराने हो गए लोग तब से अब तक कितने ही सयाने हो गए  नए नोटों पर मंगलयान इतराता हो तो क्या  हमारे गर्वित होने के सब बहाने वही घिसे -पिटे अफ़साने रह गए  क्या करें  उन्हें गर्व होता है उधर  और इधर लज़्ज़ा शरमा कर  अंधेरे घर की सबसे भीतरी कोठरी में  मोटे पर्दे के पीछे  सोने का स्वांग रचाती  है  सिसक सिसक कर हर रात रोती जाती है  लंबी -सी घूँघट के नीचे  सात जन्मों काआदर्श पत्नी-धर्म   बस यूँ ही निभाती चली जाती है ! *तस्वीर गूगल से साभार 

ज़द्दोज़हद

ज़द्दोज़हद  ************ आह बरसाती रात  किसी के लिए मधुमास  भींगने और पुलकित होने का वरदान  चाँद की लुकाछिपी में  असीमित भावनाओं का ज्वार  ! उफ्फ बरसाती रात  कहीं जीवन हेतु संघर्ष अविराम  नदियों का राक्षसी उफान  और डूबा हुआ सारा घर-बार  सड़क पर सिमटाए अपना जहान  खाट- मचान पर शरण लिए इंसान  नीचे साँप की फुफकार  नीम हक़ीम डॉक्टरों  के  लिए आई बहार ! उफ्फ बरसाती रात  वही पापी पेट का सवाल  आई तो थी दिन में उड़नखटोले से  राहत सामग्री आज  कल फिर  आए भी तो क्या  टूट पड़ेंगे और लूटेंगे बलशाली हाथ  जो जीतेंगे हमेशा की तरह सिकंदर कहलाएंगे  बहाएगी फिर से सपने चंगेज़ी धार  ! उफ्फ बरसाती रात  झींगुरों का अलबेला सिंहनाद  बड़े बन गए हैं बेजुबान  बच्चे भी समझ ही जाते हैं  पर जनमतुए कहाँ मानते हैं  रह रहकर दूध के लिए अकुलाते हैं  माँ की सूखी छातियों की टोह लेकर झल्लाते  मचा रहे व्यर्थ ही शायद हाहाकार ! ओह बरसाती रात  रोते रोते लिपट जाएंगे  रात के चिथड़ेदार आँचल में  नहीं बची माँ के बेबस होठों पर  सुंदर लोरियों की सौगात  माएं आँसू पी जी ही लेंगी  व्रतों की

कथनी -करनी

दिल्ली हिन्दी अकादमी की पत्रिका 'इंद्रप्रस्थ भारती' के मई अंक में प्रकाशित मेरी कविता  :"कथनी -करनी "

पुत्र रत्न !

पुत्र रत्न ! ☆☆☆☆☆☆☆ नौ महीने का कर्ज़  उसने कैसे भुलाया होगा  कई - कई  रातों को उसने जगाया होगा  जन्म पे जिसके इतरा कर इक अभागी माँ ने  पूरे मोहल्ले में लड्डू बँटवाया होगा  हर भूख पे वह जब अकुलाया होगा माँ को उँगलियों से टटोला होगा  अभी -अभी सोई आँखों को भी  गीले बिस्तरों ने अक्सर जगाया होगा  अपने बेवक्त  हँसने या रोने से भी  थके चेहरे को हौले -से मुस्कुराया होगा  उसकी नन्हीं उँगलियों को पकड़कर  गिर -गिर कर चलना सिखलाया होगा  हाथ थामकर उसका  नई पेंसिल से  ककहरा लिखना बतलाया होगा  वक़्त के साथ -साथ पहली पाठशाला में माँ ने ज़िंदगी का हर पाठ पढ़ाया होगा  बड़े अरमानों से भेजा होगा कलेजे के टुकड़े को  कहीं दूर सपनों को गढ़ने की ख़ातिर बारंबार   अपने आँचल के एक कोने को  अहिस्ता - अहिस्ता बूढ़ी होती माँ ने  लुढकते गर्म आँसुओं से भिगोया होगा  खोजे होंगे फिर बूढ़ी आँखों ने चाँद बड़े नेह से नाच -गाकर  ढोल की थाप पर  दुनिया की 'सबसे सुंदर दुल्हन 'को घर लाया होगा  लक्ष्मी को बुलाकर उस लाडले का घर बसाया होगा  भेजना पड़ा होगा उसे सात समंदर पार जब 

सौन्दर्य - परख

"सौन्दर्य - परख"

रोटियाँ

 रोटियाँ :एक कविता ,इंद्रप्रस्थ भारती (दिल्ली हिन्दी अकादमी ) मई अंक से

ये आकाशवाणी है .....

नब्बे बरस ....कम नहीं होते किसी की ज़िंदगी के लिए .... सारे  अनुभवों से परिपूर्ण  परिपक्व आदमी ....भारत में अपना रेडियो  90 बरस का हो चुका है ....23 जुलाई 1927  को इसने जन्म लिया था मुंबई  में ...और तकनीक के एक नए उपहार से भारतवासी  परिचित हुए  ....तब से अब तक का सफर कितना मुश्किल रहा होगा... कहने की ज़रूरत नहीं ....हम सबने या तो कुछ फिल्मों में पुराने समय के रेडियो का दीदार किया है या फिर अपने घरों में दादी नानी के जमाने के सहेजकर रखे गए  रेडियो को छूकर ....हमसे बाद की पीढ़ी जो मोबाइल में रेडियो को सुनती है.... उसके लिए पुराने ज़माने का रेडियो किसी कौतुहल से कम नहीं है ....खैर भारतीय  रेडियो  यानी आज के आकाशवाणी का जन्मदिन है  तो  कुछ यादें स्वतः उड़ती चली आती हैं  ....बचपन में होश संभाला तो घर में रेडियों की ध्वनि भी पारिवारिक सदस्य की तरह थी .... मेरे पिताजी  रेडियो पर सुबह -शाम प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय  समाचार अवश्य सुनते थे ....उनके इस रेडियो प्रेम के सौजन्य से हमारा परिचय देवकी नंदन पांडे, विनोद कश्यप ,इंदु वाही ,हरी संधू,संजय बनर्जी  जैसी दिग्गज आवाज़ों से हुआ ....जब मैं स

औरत की हँसी

' इंद्रप्रस्थ भारती'(दिल्ली हिन्दी अकादमी)   के मई अंक  में मेरी प्रकाशित रचना :

प्यार से भी ज़रूरी कई काम हैं

एक था बुद्धू प्रसाद ।नाम ज़रूर बुद्धू था , पर मेहनत से पैसे कमाना जानता था ।रिक्शा चलाकर पैसे कमाता था और इससे अपने तीन बेटों का पालन- पोषण कर रहा था ।उसकी पत्नी को लगा कि बढ़ते हुए खर्च के मद्देनज़र वह भी काम करे तो बच्चों की पढ़ाई -लिखाई आसान हो जाएगी ।उसने बुद्धू से अपने मन की बात कह डाली ।पहले तो उसे अच्छा नहीं लगा ,परंतु अपनी पत्नी की बात को टाल भी न सका ।आखिर तीन बेटों की स्कूली पढ़ाई का सवाल था।फिर क्या पत्नी आसपास के बड़े घरों में चौका - बर्तन का काम कर पैसे जुटाने लगी । परिवार की गाड़ी अब  सही पटरी पर चलने लगी।         एक दिन पत्नी को घर आने में काफी रात हो गई ।पति ने पूछा तो उसने बताया कि मालिक की पत्नी बीमार है ,इसलिए उसकी सेवा में देर हो गई ।यही सिलसिला रोज होने लगा ।एक दिन सशंकित हो जब बुद्धू पत्नी के मालिक के घर पहुँचा तो सन्न रह गया जब उसने पत्नी को रंगे हाथ पकड़ा ।वहाँ कोई परिवार नहीं रहता था ।मालिक अविवाहित था ।उसकी पत्नी ने मालिक के साथ प्रेम होने की बात स्वीकारी।हारकर बुद्धू ने पंचायत बुलाई ।पंचायत ने उसकी पत्नी को अपने पति और बच्चों के साथ रहने को कहा ।परंतु

पर्यावरण संस्कार

विवाह बहुत ही पवित्र संस्कार है हमारे भारतीय समाज में...पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले में बीते दिनों एक विवाह समारोह था।बारात आई ,द्वारपूजा हुई।अब सब जयमाल का इंतज़ार कर रहे थे ।पर यह क्या ,दुल्हन जयमाल स्टेज की तरफ न आकर कहीं और चली गई ।कुछ देर में ही जो पता चला वो नया था ।हाँ,दुल्हन रानी पौधारोपण कर रही थी और इसमें उसका साथ दे रहे थे दुल्हा सत्यप्रकाश ।आम का पौधा लगने के बाद लड़की के माता- पिता ने भी पौधारोपण किया ।उसके बाद ही जयमाल की विधि संपन्न हुई ।यानी पवित्र विवाह संस्कार में एक और पवित्र विधि का जुड़ना अनोखा था पर बहुत सराहनीय भी ।शादी ब्याह सृष्टि को निरंतर रखने के लिए होते हैं और पर्यावरण संरक्षण के बिना सृष्टि का अस्तित्व ही संकटपूर्ण हो जाएगा ।       इससे पहले भी वृक्षारोपण के संदेश देते कई आयोजन समय समय पर सुनने को मिलते रहे हैं ।संतान के जन्म और जन्मदिवस पर भी कई गाँवों में पौधों को लगाने की प्रथा रही है।ऐसे आयोजनों का खूब प्रचार-प्रसार हो ताकि लोग अपने पर्यावरण के प्रति सचेत रहें । जहाँ तक महिलाओं की बात है तो हमारे देश की महिलाएं पर्यावरण संरक्षण में पुरुषों

इश्क़ होता मकरंद

काश होती मैं शकरखोरा  इश्क़ होता मकरंद  छाँह सुंदर होती तो भी धूप की न कोई परवाह  मीरा सी दीवानी होती  तू होता एक  गिरिधर  मीठी सी बोली प्यारी होती  मैं जो खाती वो अमृत शहद  चाहे जितने पुष्प मैं छूती  बस चढ़ता पिया तेरा ही रंग   गीत मधुर सा बन जाती  हो कोई भी मुक्तक छंद ! -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना 

'सृजन' विद् अ सनफ्लावर

और वो खुद ही बन गई एक ख़बर

कभी कभी ख़बर बनानेवाले ही खुद ख़बर बन जाते हैं।शनिवार को कुछ ऐसा ही वाकया हुआ एक न्यूज़ चैनल आईबीसी 24 की एंकर सुप्रीत कौर के साथ ।छत्तीसगढ के इस चैनल पर सुबह की बुलेटिन पढ़ रही सुप्रीत को सड़क दुर्घटना संबंधित ख़बर को पढ़ते समय यह अंदाजा लग चुका था कि तीन मृतकों में से एक उनके पति हर्षद भी हैं ।लेकिन एक एंकर की जिम्मेदारी से पूरी तरह अवगत थीं ।इसलिए इस ब्रेकिंग न्यूज़ के बाद भी अपनी बुलेटिन पूरी की और न्यूज रूम में जाकर ही कन्फर्म होने के बाद फफक पड़ी।दरअसल उनके सहयोगियों को यह बुरी ख़बर पता चल चुकी थी पर इसे उन्हें बताना बहुत मुश्किल रहा होगा ।एक वर्ष पूर्व ही विवाहित सुप्रीत पर क्या गुज़री होगी ,यह समझना मुश्किल नहीं है। अभी  कुछ दिन पहले ही विविध भारती की मशहूर एंकर रेडियो सखी ममता सिंह ने अपने फेसबुक वाल पर लिखा था कि जब हम ऑन एयर होते हैं , तो अपनी निजी जिम्मेदारियों ,तनावों -दबावों को पीछे छोड़ आते हैं।बात बिल्कुल  सही है ।चाहे वह आरजे हो या न्यूज एंकर माइक्रोफोन पर आते ही वे एक सामान्य इंसान नहीं रह जाते हैं ।उनकी दुनिया बस अपनी ड्यूटी के इर्द-गिर्द रह जाती है ।जहाँ थ

बहुत ख़ूबसूरत मगर साँवली सी

ये हैं उल्का गुप्ता..... 'झाँसी की रानी 'टीवी सीरियल की लक्ष्मीबाई के बचपन के किरदार मनु को बखूबी निभाया था।इन दिनों ये काफ़ी चर्चा में हैं ।दरअसल ये अब 19 साल की हो गई हैं और बड़े पर्दे का रूख कर चुकी हैं ।ये छोटे पर्दे पर  मिले रंगभेद के कड़वे अनुभव  से त्रस्त हैं। ये फेयर स्किन की डिमांड से परेशान हो वहाँ ऑडिशन देने नहीं जाती हैं ।बिल्कुल , आजकल जो चमक दमक से भरपूर सीरियल बन रहे हैं ,उनमें साँवली लड़की भला कहाँ फिट बैठती है? तो बालीवुड भी कहाँ इनके लिए पलकें बिछाए बैठा है।तो अब स्वाभाविक रूप से रास्ता दक्षिण भारतीय फिल्मों की ओर ही जाता है न। इसलिए इन्होंने वही किया ।खैर अब अभिनय का शौक़ है, तो समझौता तो करना ही है।वह भी ऐसे देश में जो वर्षों तक अंग्रेजों का गुलाम रहा।'ह्वाइट एंड डार्क' का डार्कनेस अब तक कायम है लोगों की गुलाम मानसिकता में ।क्या आपके और हमारे घर में कोई साँवली महिला /लड़की नहीं होती है ?फिर टीवी सीरियल के फैमिली ड्रामों में इनकी जगह क्यों नहीं बन पाती है ।क्या ऐसा कर वे समाज में ग़लत संदेश नहीं दे रहे हैं ?अब चलिए बालीवुड की बात करें ।हर को

जड़ हवाओं के खिलाफ

जड़ हवाओं के खिलाफ  ●●●●●●●●●●●●●●●●●●  हाँ    बहुत लंबा सफ़र  तय कर लिया हमने  कभी चलना भी दूभर था  दो क़दम  ऊँची कँटीली चाहरदीवारी के बाहर  सपनों में हँस - बोल बतिया लेती  थीं रात के भुतहा अंधेरे में  दबे अरमानों से   दिन के सुनहले उजालों में   आँगन के ऊपर छोटे आकाश में  कुछ उड़ती चिड़ियों की झलक मिल जाती थी  और हमारी हसरतें टटोलने लगती थीं  अपने दोनों कंधों पर पंखों के उभार   अब चाहरदीवारियों में  एक चोर -दरवाज़ा लग गया है  हमारे लिए वहाँ से निकलकर  कुछ दूर  चहलकदमी करने की मौन इजाज़त है   पर मौका मिलते ही दौड़ भी लिया करती हैं हम  आकाश भी बहुत विस्तृत हो चला है  हमारे अनन्त सपनों के साथ  अब चिड़ियों से रेस लगाने को जी चाहता है  हमारे सतरंगी पंख तैयार हैं उल्टी गिनती के साथ   ये अलग बात है  कि अब भी हमारे पसीने की कीमत है  पेशेवर धावकों से कम  और हर मोड़ पर तैनात हैं तालिबानी लठैत  झबरीली मूँछों पर देते ताव  ऐसे में ज़रूरी है  हमारे असंख्य पंखों का जुड़ाव  हाँ निहायत ज़रूरी है  उड़ान   जड़ हवाओं के खिलाफ

यह ज़िद्दी समय है

यह ज़िद्दी समय है  **************** मत काटो  नन्हीं  चिड़ियों के निकलते मुलायम पर  पिंजरे में ही वे बड़ा तूफ़ान ला देंगी  मत सुनाओ  तितलियों को  अनगिनत उपदेश विषपान  कर भी वे इंद्रधनुषी आसमां रच देंगी  मत बाँटो  स्त्रियों को  चरित्र प्रमाणपत्र  इस रद्दी का वे   मशाल बना लेंगी ! -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना  *तस्वीर गूगल से साभार 

मातृभाषा दिवस आउर भोजपुरी

ढाका स्थित शहीद मीनार तस्वीरें गूगल से साभार  विश्व मातृभाषा दिवस की ढेरों बधाइयाँ ....... ------------------------ हमार मातृभाषा भोजपुरी रहल बा .....एहि से आज हम भोजपुरी में लिखे के कोशिश करतानी । मातृभाषा आ माई के महत्व हमार ज़िंदगी में सबसे जादे होखेला..... हम कहीं चल जाईं ......माई आ माई द्वारा सिखावल भाषा कभी न भूलाइल जाला...... हमार सोचे समझे के शक्ति हमार मातृभाषे में निहित हो जाला.....  हम बचपने से घर में भोजपुरी बोलेनी ....लेकिन लिखेके कभी मौका ना मिलल.....हम दोसर भाषा वाला लोगन से छमा मांगतानी ....लेकिन भोजपुरी भी देवनागरी लिपि में लिखल जाला ....एहि से आस बा कि जे हिंदीभाषी होई ओकरा समझे बूझे में दिक्कत ना होई. आज 21 फरवरी हs .....विश्व मातृभाषा दिवस..... हमनी के कृतज्ञ होके के चाहीं 1952 के पूर्वी पाकिस्तान आ ए घड़ी के बांग्लादेश के उ शहीद आ क्रांतिकारी नौजवानन के .....जिनकर भाषाइ अस्मिता के बदौलत आज इ दिवस संसार भर में मनावल जाता..... बांग्ला भाषा खाति शुरू भइल इ आंदोलन अब 1999 से विश्व भर में सांस्कृतिक विविधता आउर बहुभाषिता खाति मनावल जाला....अभियो भारत के
तितलियाँ ..........रंग बिरंगी उन्मुक्त तितलियाँ .......बचपन से ही सबको लुभाती रही हैं  .... स्कूलों के बाग़ीचे में जब ...छोटे  बच्चे तितलियों के पीछे भागते हैं....तब उनकी मैडमें कहती हैं ....  तितली मत पकड़ो  वरना तुम्हारी शादी नहीं होगी ....हा  हा हा .... वैसे तितलियाँ पकड़ में जल्द आती कहाँ हैं ....तितलियाँ पकड़ना छूटा यानी बचपन छूटा ....और साथ ही वह उन्मुक्तता भी .....कंक्रीटों के जंगल में आदमी ही आदमी नज़र आते हैं ....तितलियों का दीदार कहाँ हो पाता है ....हाँ अगर मौसम सुहावना हो और थोड़ी-बहुत बागवानी का शौक़ हो ....तो अवश्य आती हैं मेहमान बनकर ये शहजादियाँ .....और फिर बचपन की भोली भाली गलियों में पहुँच जाता है दिल .....आज मोबाइल फोन की सुविधा है वो भी कैमरों के साथ ....बस कुछ अनोखा या प्रिय लगा ....कैद कर लो झट से ....मैं इन सर्दियों में एक दिन अख़बार पढ़ते हुए मीठी धूप का आनंद ले रही थी ....तभी मेरी नज़र पड़ी एक सफेद बूटेदार काली तितली पर ....वह बड़ी देर तक गमलों में लगे फूलों पर मंडराती हुई रसपान करती रही......  शायद इसकी वजह स्टीविया का मीठा रस रहा हो ...फिर क्या मैंने अपने म

सुनो बालिके ...सुनो !

   सुनो बालिके ....सुनो ! ********************** बधाई तुम्हें  कि इस दुनिया में  तुम आ ही गई  पर इस खुशी को संभालने की ख़ातिर  सीखने होंगे कई नए पाठ अभी तो यह पहला व्यूह था  बाक़ी हैं कठिनतर सफ़र पार करना होगा  समूचा चक्रव्यूह  चलो अच्छा है  अभी तुम्हारे खेलने - खाने के दिन हैं तुम बहुत खुश लग रही हो  अपने रंगबिरंगे किचेन सेट में  दाल -भात ,रोटी और चाय के अलावा पिज्जा -बर्गर भी पकाकर  और अपने इस खेल में मम्मी -पापा को झूठमूठ का परोसकर  तुम इतरा रही हो  पर रूको अभी देखो  इसके आगे कई मुक़ाम हैं तुम भी खेलो कमरे से निकालकर बाहर अपने पाँव रखो रनों का हिसाब  चोट करो शटल पर संतुलन साध घरेलू बिल्ली से ही प्यार मत बढ़ाओ  सीखो शेरनी से दहाड़ पूरी दुनिया है सियासत  बिछी शतरंज की बिसात   चलता रहता शह और मात  दिन हो या रात  अरे बालिके  मत रचाओ गुड्डे - गुड़ियों का ब्याह राजकुमारी बनकर मत घूमो परीलोक का छद्म संसार  मत बुनो सुनहरे ख्वाब अपनी मम्मियों और दादियों की तरह कि सफेद घोड़े पर होकर सवार  आएगा कोई बहुत सुंदर राजकुमार  ले जाएगा तुम्हें सात समंदर प

बेंगलुरू ! हम शर्मिंदा हैं

हर कली या फूल के साथ काँटें भी होने चाहिए ताकि यूं ही कोई मसल कर छुट्टा सांढ इतराता  चला न जाए  बहुत अजीब समय है कि हर माली दहशत में है  माथे पे उनके ये गहरी शिकन है   क्या कलियों का खिलना गुनाह है या उनका खुलकर खिलखिलाकर हँसना  सोचो न कलियाँ खिलना बंद कर दें तो  दुनिया मरघट की खामोशी ओढ़कर कितनी सिकुड़ जाएगी  उस 'नैनो वर्ल्ड ' में किसी खुशबू और रंग की परिकल्पना  क्या कवियों के वश की बात है  या फिर ज्योतिषी बता सकते हैं गणना कर  कि सृष्टि इन कलियों के बिना ज़िंदा रह सकेगी कितने बरस  माँ के बिना नवजात संतान की परवरिश कहाँ आसान होती है  जिन्होंने नहीं सुना ऐसा अभागे बच्चों का रोना  उनकी मूर्खता को सलाम   पर अब वैज्ञानिक अनुसंधानकर्ताओं से कह दो  बनाएं जब भी नई पौध आधुनिक प्रयोगशालाओं में  कलियों को बस बेहतरीन रंग और खुशबू न  दें  छुरीले मारक काँटों का साथ भी ज़रूर दें  अगर दुनिया बचानी है ......... -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना   

अपने समय से आगे एक सावित्री

अपने समय से आगे एक सावित्री ------------------------------------------------ बचपन में उसे अपने घर में मिली एक अंग्रेजी की किताब......उसने उत्सुकतावश जब उसके पन्नों को पढ़ने की चेष्टा की....तब पिता ने चिढ़कर किताब को खिड़की से बाहर फेंक दिया....पर उसका उत्साह खत्म नहीं हुआ. ...तमाम विरोधों के बावजूद पढ़ाई के प्रति ललक खत्म नहीं हुई.....हाँ, उसकी इच्छा तभी पूरी हो पाई जब उसका विवाह हुआ. ...वह भी एक ऐसे महात्मा से जो स्वयं शिक्षा को मनुष्य का सबसे बड़ा हथियार मानता था....फिर क्या था. ..वह उनकी शिष्या बनी और पढ़ पाने की पुरानी ज़िद्द पूरी हुई....पर उसका सफ़र यहीं नहीं रूका....उन्नीसवीं सदी के उस घोर कूपमंडूक समाज में ...जहाँ स्त्रियों की शिक्षा के बारे में सोचना भी पाप था...शिक्षा की मशाल को न केवल जलाया वरन् उसे कभी बुझने न दिया...पूना में विभिन्न जाति-धर्म की नौ लड़कियों को ले कर पहला कन्या पाठशाला खोला ...फिर अपने पति के सहयोग से विभिन्न स्थानों पर 18 स्कूल खोले....इस क्रम में उसे तत्कालीन समाज से कितना प्रतिरोध झेलना पड़ा होगा....यह सोचने की बात है. ...सचमुच...स्क