नीड़ उजड़ने के बाद
**********************************माँएं रोती हैं, बड़बड़ाती हैं
आवारा कुत्तों के रोने के बीच
तोड़ती हैं रह रहकर
दिन भर भोंपू बने शहरों की
रात की भुतहा खामोशी
और थक - हारकर कोस लेती है
अपनी फूटी हुई किस्मत को
माँओं को यक़ीन नहीं है
उजड़ गया है नीड़ उनका
बिखर गया है तिनका तिनका
दरअसल आंधियों को इतनी जल्दी आना न था
घर में नई किलकारियों का गूंजना बाकी था
नन्ही कोमल उंगलियों से
जीर्ण उँगलियों का जुड़ना बाकी था
माँएं चाहती थीं बहुओं को सौंपें
परंपरा की विरासत
सभ्यता की सुनहली बड़ी कुंजी
पर उन्हें क्या पता था
आज़ादी का नया मतलब
जहाँ कौशल्या भी कैकेयी समझी जाती है
माँओं ने जोड़ रखा था
बवंडरों के बीच भी
सांझा चुल्हा साल - दर-साल
रोटी की सोंधी महक ने
बांध रखा था थोड़े से खटासों के बीच भी
रिश्तों - नातों की मीठी डोर
माँएं रचाते रचाते गुड़ियों का ब्याह
खुद दुल्हन बना दी जाती थीं
निरक्षर, चिट्ठी बाँचने लायक या
हाई स्कूल पहुंची माँएं
हो जाती थीं चट्टान
थोड़ी सी आमदनी में ही कर लेती थीं
नून - तेल का जुगाड़
रखती थीं बच्चों के चेहरे पर मुस्कान
चाहे चलाना पड़े खुद
दो-तीन साड़ियों से ही काम
नाभिकीय परिवार हो या नाभिकीय अस्त्र
विस्फोट हो कहीं
विनाश का दंश झेलती हैं औरतें
अपने ही नीड़ के उजड़ने पर
टूट कर बिखर जाती हैं माँएं
उनका रोना कहाँ सुन पाते वे
जो माता-पिता बनेंगे कल
हैं बेख़बर
एक नई दुनिया सपनों की
बसाते - संवारते हुए
जड़ों को काटकर
हवा महल बनाते हुए !
-सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना
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