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जनवरी, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सुनो बालिके ...सुनो !

   सुनो बालिके ....सुनो ! ********************** बधाई तुम्हें  कि इस दुनिया में  तुम आ ही गई  पर इस खुशी को संभालने की ख़ातिर  सीखने होंगे कई नए पाठ अभी तो यह पहला व्यूह था  बाक़ी हैं कठिनतर सफ़र पार करना होगा  समूचा चक्रव्यूह  चलो अच्छा है  अभी तुम्हारे खेलने - खाने के दिन हैं तुम बहुत खुश लग रही हो  अपने रंगबिरंगे किचेन सेट में  दाल -भात ,रोटी और चाय के अलावा पिज्जा -बर्गर भी पकाकर  और अपने इस खेल में मम्मी -पापा को झूठमूठ का परोसकर  तुम इतरा रही हो  पर रूको अभी देखो  इसके आगे कई मुक़ाम हैं तुम भी खेलो कमरे से निकालकर बाहर अपने पाँव रखो रनों का हिसाब  चोट करो शटल पर संतुलन साध घरेलू बिल्ली से ही प्यार मत बढ़ाओ  सीखो शेरनी से दहाड़ पूरी दुनिया है सियासत  बिछी शतरंज की बिसात   चलता रहता शह और मात  दिन हो या रात  अरे बालिके  मत रचाओ गुड्डे - गुड़ियों का ब्याह राजकुमारी बनकर मत घूमो परीलोक का छद्म संसार  मत बुनो सुनहरे ख्वाब अपनी मम्मियों और दादियों की तरह कि सफेद घोड़े पर होकर सवार  आएगा कोई बहुत सुंदर राजकुमार  ले जाएगा तुम्हें सात समंदर प

बेंगलुरू ! हम शर्मिंदा हैं

हर कली या फूल के साथ काँटें भी होने चाहिए ताकि यूं ही कोई मसल कर छुट्टा सांढ इतराता  चला न जाए  बहुत अजीब समय है कि हर माली दहशत में है  माथे पे उनके ये गहरी शिकन है   क्या कलियों का खिलना गुनाह है या उनका खुलकर खिलखिलाकर हँसना  सोचो न कलियाँ खिलना बंद कर दें तो  दुनिया मरघट की खामोशी ओढ़कर कितनी सिकुड़ जाएगी  उस 'नैनो वर्ल्ड ' में किसी खुशबू और रंग की परिकल्पना  क्या कवियों के वश की बात है  या फिर ज्योतिषी बता सकते हैं गणना कर  कि सृष्टि इन कलियों के बिना ज़िंदा रह सकेगी कितने बरस  माँ के बिना नवजात संतान की परवरिश कहाँ आसान होती है  जिन्होंने नहीं सुना ऐसा अभागे बच्चों का रोना  उनकी मूर्खता को सलाम   पर अब वैज्ञानिक अनुसंधानकर्ताओं से कह दो  बनाएं जब भी नई पौध आधुनिक प्रयोगशालाओं में  कलियों को बस बेहतरीन रंग और खुशबू न  दें  छुरीले मारक काँटों का साथ भी ज़रूर दें  अगर दुनिया बचानी है ......... -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना   

अपने समय से आगे एक सावित्री

अपने समय से आगे एक सावित्री ------------------------------------------------ बचपन में उसे अपने घर में मिली एक अंग्रेजी की किताब......उसने उत्सुकतावश जब उसके पन्नों को पढ़ने की चेष्टा की....तब पिता ने चिढ़कर किताब को खिड़की से बाहर फेंक दिया....पर उसका उत्साह खत्म नहीं हुआ. ...तमाम विरोधों के बावजूद पढ़ाई के प्रति ललक खत्म नहीं हुई.....हाँ, उसकी इच्छा तभी पूरी हो पाई जब उसका विवाह हुआ. ...वह भी एक ऐसे महात्मा से जो स्वयं शिक्षा को मनुष्य का सबसे बड़ा हथियार मानता था....फिर क्या था. ..वह उनकी शिष्या बनी और पढ़ पाने की पुरानी ज़िद्द पूरी हुई....पर उसका सफ़र यहीं नहीं रूका....उन्नीसवीं सदी के उस घोर कूपमंडूक समाज में ...जहाँ स्त्रियों की शिक्षा के बारे में सोचना भी पाप था...शिक्षा की मशाल को न केवल जलाया वरन् उसे कभी बुझने न दिया...पूना में विभिन्न जाति-धर्म की नौ लड़कियों को ले कर पहला कन्या पाठशाला खोला ...फिर अपने पति के सहयोग से विभिन्न स्थानों पर 18 स्कूल खोले....इस क्रम में उसे तत्कालीन समाज से कितना प्रतिरोध झेलना पड़ा होगा....यह सोचने की बात है. ...सचमुच...स्क

गुब्बारे दीवारों से टंगे हुए

सभी मित्रों -पाठकों को नववर्ष की हार्दिक  शुभकामनाएं ! प्रस्तुत है इस  वर्ष  की प्रथम कविता इस ब्लॉग पर ।अपनी प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत कराते रहें।धन्यवाद । गुब्बारे दीवारों से टंगे हुए ******************* दो शब्द तारीफ़ों के अगर मिल जाते  मन इंद्रधनुष के सप्तरंगों पर सैर कर आता दिनभर के खालीपन में  कोई प्राणवायु भरकर संजीवनी मिल जाती हर शाम गुब्बारे खिल-खिल जाते  चाँद -सितारों से जा टकराते चाँदनी लिख जाती  काले स्लेट पर मोतियों की गुथी कोई सुंदर वर्णमाला  नन्हे बच्चे तोतली भाषा में सीखते  बार -बार दोहराते हम भी याद कर लेते फिर से वही प्रेमगीत  जिसे वर्षों से नहीं गाया गया नून -तेल के जुगाड़ में  घोंसले के बचाव में  दौड़ते हुए पाँवों  की थकान में  चलो न  सीखे फिर से ककहरा  कि गुम हो गई हैं हृदय से निकली लाखों शब्दावलियाँ बाज़ार में सस्ते सामान की तलाश में  जोड़घटाव गुणाभाग  मोलभाव करते पूरी पृथ्वी तीन  डगों में नापकर  इत्मीनान का स्वांग  रचते -रचते ! -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना