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विदा होती बेटियाँ

विदा होती बेटियाँ  रोती हैं सब बेटियाँ  जब लाँघ कर देहरी मायके की   एक नई दुनिया की ओर  कदम रखती हैं हौले से  सब की सब नहीं होती हैं  सबसे अमीर पिता की संतान  सबके घर में नहीं होती है  कोई कामधेनु गाय  सबके घर नहीं होते  आलीशान राजमहल  सबके पास नहीं आता  सफेद घोड़े पर सवार सुंदर राजकुमार  फिर भी वे तैर लेती हैं कभी - कभी  ख़्वाबों के स्वीमिंग पुल में  गा लेती हैं उम्मीदों के गीत  सुंदर गार्डेन की धूप - छाँव में  सिनेमा के काल्पनिक गीतों को याद कर  रिश्ता तय होने के बाद से ही  कभी हँसती हैं  कभी रोती हैं अचानक  कभी भविष्य को ताकती हैं  कभी अतीत को झाँकती हैं  रात्रि के एकांत में प्रायः उदास हो जाती हैं बेटियाँ - कि न जाने कैसे चुकेगा पिता का क़र्ज़ नया कि कौन रखेगा  दिन- ब -दिन पृथ्वी की तरह बूढ़ाती अपने वदन पर   नई बीमारियों की लिस्ट जोड़ रही  स्नेहिल बरगद की छाँव-सी माँ का ख़याल  विदाई के पलों में तो  बेटियों की उदासी की ज्वालामुखी  फूटकर लावा बिखेर जाती हैं जब देखती हैं - ताउम्र कठोर रहे पिता को भी बिलख क

मिट्ठू-राग

मिट्ठू - राग ------------------ यह उन दिनों की बात है  जब नहीं था इंटरनेट  न ही स्मार्ट फोन  और न ही सोशल मीडिया का विस्तृत फ़लक  तब भी स्कूल जाती थीं लड़कियाँ  सुबह सवेरे काॅलेज के लिए निकल पड़ती थीं युवतियाँ   और घर की चिंता सर पर बांधे  दफ़्तर की राह चल देती थीं कामकाजी स्त्रियाँ  उन दिनों भी बस या ऑटो में घूमती थी कुछ गिद्ध निगाहें  टटोलती थीं वहशी उंगलियाँ गोश्त उम्र के फासले मिट जाते थे  नए दानवों के साथ वृद्ध राक्षसराज भी होते थे शिकारी  लेकिन साहसी लड़कियाँ जड़ देती थी प्रतिरोध के तमाचे  थोबड़ों पर उग आते थे नाज़ुक उंगलियों के अनदेखे निशान  काॅलेजों में भी ताक में बैठे होते थे नुकीले पंजे वाले भेड़िए  जो दिलवाते थे टाॅपर होने का तमगा  कुछ आसमानी लड़कियाँ शिकार हुईं  पर कई स्वाभिमानियों की इंकार हुई  सच है कि  दफ़्तरों के केबिन भी कम नहीं थे इस्पाती पिंजड़ों से  कुछ ऊँची उड़ान के लिए लाचार हुईं  कुछ ने  नहीं रखा अपनी आत्मा को गिरवी  तोड़ दिए पिंजड़े एक झटके में  धीरे- धीरे समय का इंतज़ार किया  उन दिनों भी तो वयस्क औरतें

भेड़ियों का देश

भेड़ियों का देश  उनकी चीखें अब भी सुनाई दे रही हैं जो दफ़न कर दी गई अपने ही आश्रय में उनके आँसू अब भी दे रहे ज़ख़्मों की गवाही जो बची रह गई हैं ज़िंदा लाशें उन्होंने शायद सुनी नहीं होंगी आततायी राक्षसराज रावण की कहानी जिसने  क़ैद में भी रखा था सुरक्षित अपहृत कर लाई गई सीता उन्होंने नहीं देखी होंगी शायद पुरानी फ़िल्में जिनमें कोठे पर तोड़ कर लाई गई कलियों का भी फूल बनने तक होता था इंतज़ार उन्होंने शायद सुनी होंगी खूंखार भेड़ियों की कहानी पर अपने ही समक्ष देखा होगा पहली बार वे चिल्लाई होंगी , फड़फड़ाई होंगी पिंजड़े में देखकर उनके वहशी पंजे पर महिला दलालों को भी रहम न आई होगी काश इस वीभत्स हक़ीक़त का नाम बस मुज़फ्फ़रपुर ही होता पर अफ़सोस..... ओ ' धर्मपत्नी और लाडली पुत्री  ' जो डाल रही हो पर्दा अपने ही खूनी मुखिया भेड़िये के कुकर्मों पर खुश हो लो कि- वैसे ही ख़ौफ़नाक भेड़ियों से भर गया है यह पूरा देश देवियों के नाम पर भी सज रही हैं मंडियाँ और हाँ तुम्हारी तरह वे बहुत कुलीन खानदान की नहीं बेटियाँ पर इतना तो जानती होगी तुम भी कि भेड़ियों के लिए कित

वाटरवाइफ़

          वाटरवाइफ़  ************** ओ पानीबाई उर्फ वाटरवाइफ़  तुम्हारी आँखों में भी तो छलककर आ जाता होगा पानी कभी -कभी  या तुमने इसे अपनी नियति मान  सारे पानी को सुखा लिया है  रख अपने कलेजे पर पत्थर  सुना है मैंने  तुम्हारे अनोखे जीवन के बारे में जबसे  तू क्या सोचती होगी  आते -जाते लंबे रस्ते में  यही सोच रही तबसे  या सहेलियों के संग  अपने दुख की गठरी तुम  कुछ हल्का कर लेती होगी  देखो न कितने ज़ख़्म भरे पड़े हैं  धरती के भी अधेड़ वदन पर  काटने को तैयार हैं सरकारी कुल्हाड़ियाँ राजधानी में सोलह हज़ार दरख़्त  उन दरख़्तों  की भी सुंदर कहानी रही होगी  कुछ हँसते होठों और गीली आँखों की ज़िंदगानी होगी  विकास के नाम पर उनकी भी अब कुर्बानी होगी  सोचकर अक्सर हैरान होती हूँ मैं  यह विकास नामक एलियन -सा जीव  तुम्हारे गाँव जाकर कभी झाँकता क्यों नहीं  दूर -दराज के कुओं -दरियाओं को  तुम्हारे पास बुलाता क्यों नहीं  कहीं तुम्हारा गाँव चंदा की नगरी से भी दूर तो नहीं  उस जगह कोई 'चंद्रयान ' उड़कर  पहुँच जाता क्यों नहीं  इन प्रश्नों के उमड़ते -घुमड़ते बादलों

वीडियो की बात

मित्रों,नमस्कार । एक लंबे अंतराल बाद यहाँ आना संभव हो पाया है । दरअसल आजकल अपनी बातों के संप्रेषण के कई माध्यम हैं ।समय के साथ साथ जैसे प्रिंट मीडिया से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की तरफ़ लोगों का रूख हुआ ,उसी तरह अब पढने की बजाय कुछ लोग सुनने -देखने में ज़्यादा रुचि लेते हैं ।विदेशों की तरह भारत में भी वीडियो का प्रचलन बढ़ रहा है । मैं भी अब इस अधिक संप्रेषणीय माध्यम के सहारे अपनी बात अधिक लोगों तक पहुँचाने की छोटी कोशिश में लगी हूँ । कुछ मित्रों ने इसे सराहा है । आप भी इसे देखें- परखें।पसंद आए तो लाइक करें ,शेयर करें । मैंने यू ट्यूब पर एक चैनल बनाया है जिसमें अपनी अभिरुचि के अनुरूप साहित्य ,कला एवं प्रकृति के संयोजन का अपने सीमित साधनों में एक छोटा सा प्रयास है ।आप इसे सब्सक्राइब करेंगे तो मुझे प्रोत्साहन मिलेगा । लिक है : https://www.youtube.com/channel/UCwKPATswcN0gfHA0LYaxyg

नृशंस से अधिक

नृशंस से अधिक .....  इस बार भेड़िये गाँव से जंगल की ओर आए  नोच-नोचकर बोटियाँ मासूम गुड़िया के खा गए  भगवान के घर में  लगाए माथे पर कलंक -टीका  भजन गाते हुए अधम  पापी नृशंसता को पीछे छोड़ आए  कभी किया होगा  नवरात्रि में कन्या-पूजन  उस देवी को कैसे  सहज दलन कर आए  कैसे हैं वे भेड़िये अपने ही पुत्रों के नाखून चमका रहे  संग मिलकर अनवरत  बोटियाँ खाना सिखला रहे  सुन लें पापी वे  न तिरंगा का  न औरत का  है कोई मज़हब होता  वह नारी नहीं हो सकती  जिसकी रूह न काँपी होगी  भेड़ियों की ऐसी दास्तान  पहले किसी ने न सुनी होगी  सियासत की अगर मज़बूरी न हो  उस मासूम का नाम भी 'निर्भया ' रख दो  सज़ा ऐसी मुकर्रर कर दो  हर भेड़िये की आँखें बन जाएं पत्थर  ! @कठुआ  -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना 

कविता की ज़मीन

"विश्व कविता दिवस " की हार्दिक शुभकामनाएं सभी मित्रों को ..... तब आठवीं कक्षा की छात्रा थी .. अभी उस स्कूल में नई नई थी मैं ...अचानक एक दिन घोषणा हुई कि स्कूल में कविता लिखने की प्रतियोगिता है ......पता नहीं क्यों इस घोषणा ने मन बांध लिया ....शायद घर में पिता को लिखते देखते आई थी .....प्रशासनिक सेवा में होने के बावजूद पिताजी की साहित्यिक अभिरुचि थी और स्थानीय पत्र - पत्रिकाओं में छपते भी रहते थे .....जब से मैंने होश संभाला था ,घर में खुद को साहित्यिक पत्रिकाओं के बीच घिरा पाया ....धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान ,कादंबिनी ,नवनीत ,सारिका,हंस जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं की नई- पुरानी प्रतियों के अलावा दिनमान और रविवार के बहुत पुराने अंकों के पन्ने पलटते हुए पता ही न चला कि कब मैं खुद शब्दों की चितेरी बनने की नींव रख चुकी थी...... हाँ ,तो स्कूल की घोषणा मेरे  लिए एक नया रास्ता  गढ़ रही थी हालांकि इसकी कोई मंजिल नहीं थी  .....इससे पहले सिर्फ एक बार कविता लिखने की बचकाना कोशिश की थी ...संयोग से उस दिन एक खाली पीरियड भी हाथ आ गया ....बस फिर क्या ....ताना -बाना शुरू  .....क्लास मे

प्रेम अभी क़त्लखाने में क़ैद निहत्था अहसास है

प्रेम अभी क़त्लखाने में क़ैद निहत्था अहसास है कि खिलना था सुंदर फूलों को जहाँ वह ठूंठ बनकर कुरूप खड़ा है तितलियाँ इस भयानक हादसे की शिकार हैं पत्थर मार रहे हैं बच्चे उनके पागलपन पर कोई रूदाली गा रहा है रूक रूक कर कोयलिया का भी गला रुंध गया है शायद तोड़े जा रहे हैं प्रेम के मंदिर डायनामाइट से घृणा को मातृभूमि से प्रेम का पर्यायवाची शब्द गढ़ा जा चुका है नैतिकता का मुखौटा चमक रहा है अनैतिकता के हर रावणी चेहरे पर लाल रंग नफ़रत की चाशनी में गाढ़ा होकर काला पड़ गया है बिल्कुल टूटे सूखे गुलाब की बेजान पंखुड़ियों की तरह ऐसे में मत कहो कि लिखो एक प्रेम कविता हमारे हाथों में तो नुकीले खंजर छुपे हैं कलम की शक्ल में ये प्रतिशोध के लोकप्रिय   हथियार हैं हमें डर है कि लिखना चाहें एक अदद प्रेम कविता कोई वीभत्स क़त्ल न हो जाए कठपुतली बनी उंगलियों से कि हर क़दम हमारा सीसीटीवी कैमरे की गहन निगरानी में है हँसना भी असंभव है प्रेमवाली नैसर्गिक हँसी और नौटंकी सबके वश की बात नहीं है बहुत शिद्दत से चाहते हैं सब परिंदे प्रेम करना कि वसंतोत्सव मना रहा है बाज़ार चीखकर फिर भी वे बेबस

आधी आबादी का नव वर्ष

थोड़े से   रंग हों थोड़ा से ख़्वाब हों बिखरे तो उदास न हो टूटे तो   आवाज़ न हो.... इस ब्लॉग के सभी पाठकों को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं  ! हालांकि हर दिन नया होता है हर रात नई होती है ....हर छोटा सा पल भी नया ही होता है ....जब सप्ताह का प्रारंभ सोमवार से ....दिन का प्रारंभ सुबह से होता है ....फिर वर्ष का प्रारंभ भी एक न एक दिन तय होना ज़रूरी होता है ....ग्लोबल दुनिया ने पहली जनवरी को यह तोहफा दिया है ....और इस तोहफे के परस्पर विनिमय से कोई अलग नहीं रह पाता है ....यानी साल के पहले दिन की खुशी मनाकर तरोताज़ा हो जाना किसी धार्मिक गुलामी का प्रतीक नहीं है . ऐसा नहीं कि हर दुआ... हर शुभकामना पूरी हो ...लेकिन इस बहाने सकारात्मकता का प्रवाह  होना जीवन के लिए शुभ ही तो है ....अब देखिए न ..ऊपर की तस्वीर का गुलाब ...नर्सरी से घर लाने के बाद हाल ही में  पहली बार इसमें कली लगी ....और मुझे इसे देख एक हफ्ते से ऐसा लग रहा था कि यह नए साल का मेरे लिए उपहार होगा ...आज यह गुलाब पूरा तो  नहीं खिल पाया है.. शायद धूप की कुछ कमी रह गई थी इन दिनों...... परंतु अधखिला ही सही ....मेरी उम्मीद को ज़