सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

फ़रवरी, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

वर्जित नहीं हैं हमारी आत्मा के मंदिर

वर्जित नहीं हैं हमारी आत्मा के मंदिर ------------------------------------------------------------ अपने मंदिरों व मस्जिदों को रहने दो हम तो बाक़ी सारा जहान लेंगे जो शुद्धता का भरते हैं दंभ उन्हें ही दिखावटी प्रार्थना और अज़ान दे दो हमीं ने जीवित रखा सृष्टि का चक्र फिर भी लिखा अपने विधानों में तुमने उटपटांग बहुतेरे दंड  हमीं देवी थी, तुम्हारे शुद्ध हाथों से पूजी गईं थी लहू के फूल से इतना घबड़ाते हो 'गौरी ' से अचानक अपराधिनी बना देते हो तभी तो स्कूल के एकांत में जाकर सहेलियों से पूछना पड़ता है छुपकर - फुसफुसा कर "ज़रा देख पीछे, स्कर्ट तो ठीक-ठाक है" उनकी स्वीकृति के इशारे पर मानों एक क़िला फ़तह हो जाता है पर घर में अपनों की निगाहों में अछूत बना तन बार-बार यक्षप्रश्नों से टकराता है क्या धरती पर भी कभी कोई पहरा लगा जाता है दस - ग्यारह का अबोध मन समझ नहीं  पाता उन वर्जनाओं का मतलब रसोई की चौखट पर लगी 'नो एंट्री' की अदृश्य चेतावनी अलग बर्तनों ...अलग बिस्तरों की दर्दनाक पहेली दैहिक पीड़ा से मिलकर अक्सर बेढंगा

कल्पना चावला के प्रति

कल्पना चावला ( 17 मार्च 1962 - 1 फरवरी 2003) को समर्पित मेरी कविता, जो साहित्यिक पत्रिका 'हंस ' के सितम्बर माह,2010 के अंक   में प्रकाशित  हुई थी, एक बार फिर से यहां प्रस्तुत कर रही हूँ। कल्पना चावला के प्रति _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ तुम्हारी तरह ओ कल्पना सपनीली आँखोंवाली कई लड़कियाँ होती हैं पर उनके हाथ नहीं चूम पाते चाँद - सितारे और कभी-कभी एक टुकड़ा ज़मीन भी । तुम्हारी तरह कई लड़कियों का बचपन चिड़ियों संग भरता है लंबी उड़ान चाहरदीवारियों में पंख फड़फड़ाते देखा करता है अक्सर मेहंदी - चूड़ियों से इतर भी ढेरों सतरंगे ख़्वाब । तुम्हारी तरह कई लड़कियाँ चाहती हैं ' स्टोव ' या ' गैस ' की आग में झुलसने की बजाय एक रोमांचकारी मौत और उतारना अपनी जननी और जन्मभूमि का थोड़ा-सा क़र्ज़ । तुम्हारी तरह कई लड़कियों को याद दिलाए जाते हैं उनके कर्त्तव्य और संस्कार अट्ठारह-बीस की उम्र में करने को ब्याह पर यहीं तुममें और उनमें आ जाता है फर्क वे चाहकर भी नहीं तोड़ पातीं जाति-धर्म और देश के बंधन । तुम्हारी तरह अब सीख रही हैं लड़कियाँ बेड