सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

सितंबर, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

वो साँवली खुरदुरी -सी लड़की

वो साँवली खुरदुरी -सी लड़की --------------------------------------------- अमावस को तो नहीं जन्मी थी या अम्मा ने जामुन तो नहीं खा लिए थे ज़्यादा उबटन नहीं लगा था क्या बचपन में अब तो मर्दो के लिए भी आ गई है फेयरनेस क्रीम तू किस दुनिया में रहती है - पूछते हैं अक्सर लोग ऊपर से मुस्कुरा देती है टेढ़े चाँद की तरह  अंदर उबलती - उफनती धरती की बेटी संभाल कर रखती है शुभचिंतकों के ये क़ीमती दस्तावेज़ अंधेरे से मिलकर किसी रात तकिये को उड़ेल देती है ये उपदेश  सुबह भरती है चिड़ियों संग लंबी उड़ानें आकाश उसकी मुट्ठी में आ चुका है पर पास नहीं कर पाती  ड्राइंगरूम में लिया जानेवाला कोई इम्तिहान लड़खड़ाती -संभलती ट्रे में लाई गई चाय  पता नहीं कैसे 'डार्क' हो जाती है अक्सर  वह तो बड़े प्यार से बनाती है आनुपातिक चीनी और दूध वाली मीठी चाय  परंतु दर्शनार्थियों का मुख कसैला -सा हो जाता है प्याली नहीं होती कभी खाली चाय ठंढी हो उदासी की मोटी छाली ओढ़ लेती है हर असफल ड्रामे के बाद ज्ञानी पंडित पिता को सलाह दे जाते हैं रंगीन पत्थरों वाली अंगू

रहें न रहें हम

रहें न रहें हम -------- वह एक गुड़िया थी. ...माटी की नहीं, जीती - जागती ......लेकिन उस गुड़िया का संसार उस समय उजड़ गया ....जब पिता की असामयिक मौत ने उसके सिर पर पूरे परिवार का बोझ लाद दिया.....और वह गुड़िया अचानक से बड़ी हो गई.....स्कूल की फीस भरने के पैसे न थे ,इसलिए स्वयं स्कूल नहीं गई ...मराठी-हिन्दी फिल्मों में अभिनय और पार्श्व गायन कर अपने भाई -बहनों को स्कूल भेजा .....शास्त्रीय संगीत का रियाज़ ...जो पिता ने पाँच साल की उम्र में शुरू करवाया था....आगे चलकर वही काम आया ....आरंभ में उच्चारण दोष के कारण उपहास का पात्र बनी लता ने निरंतर अभ्यास और मेहनत  से जब अपना मुकाम हासिल कर लिया ...तब उन्हीं के गीत उच्चारण सीखने के लिए आदर्श बन गए ...इसे महज़ किस्मत का नाम देना मूर्खता है।            लताजी ने बहुत संघर्ष कर पहले से आसीन पार्श्व गायिकाओं के बीच अपनी जगह बनाई थी......फिर यह आरोप कैसे तर्कसंगत हो सकता है कि उन्होंने अपनी बहनों या अपनी समकालीन उभरती गायिकाओं के रास्ते रोके हों ....सबको अपनी जगह खुद बनानी पड़ती है ....शायद लता सर्वश्रेष्ठ होने के योग्य थीं,  इसलिए वे

इम्तिहान ज़िन्दगी के

इम्तिहान ज़िन्दगी के *************************** वे नहीं जानती हैं वज्रपात क्या होता है  या फिर पैरों तले ज़मीन का खिसकना अचानक टूटकर तारों का ग़ुमशुदा हो जाना या बहती हुई नदिया का बरसात में सूख जाना पर उन्हें पता हो चुका है बहुत पहले से कि इंतज़ार क्या होता है लेकिन वह इंतज़ार ही नहीं रहा न इसी का तो सबसे बड़ा सदमा है कि पापा का इंतज़ार अब नहीं होगा कभी जानती हैं पापा की दुलारी बेटियाँ पापा की ज़ान व्यर्थ थोड़े ही गई है यह सच है कि यादें आँसू साथ लाती हैं पर शहीद की यादें कलेजा पत्थर का माँगती हैं तो आँसुओं को फटकार दूर भगाना होगा और अपने पथ पर डटकर चलना होगा अब नहीं होगा मज़बूत बाहों का झूला न छुट्टियों में लगेगा खुशियों का मेला सिर पर उस घनी छाया के बिन जीना होगा कड़ी धूप में ही तपकर ख़ूब निखारना होगा ऐसे ही तो उनके सपनों को मुट्ठी में लाना होगा पीतल तो बिखरे हैं बहुत  खरा सोना बनना होगा यह तो पहला क़दम है बुझे  पाँवों का चलते चलते क़दमों के निशान बनाना होगा इम्तिहान ही तो है हर पल  ज़िंदगी का छोटे इम्तिहानों से  क्यों घबराना होगा चलो छोड़ दें ज़िदगी क

घोषणापत्र

घोषणापत्र  ------------------------ घूँघटों में  आँसू छिपे हैं खुशियों की उछलती हुई कुछ गेंदें भी घूँघटों के साथ आए हैं खाली बड़े बर्तन बर्तन इकट्ठे होकर आपस में फुसफुसाएंगे कोई अपना आँसू उड़ेल देगा कोई गेंद अपनी छोड़ देगा  सब आँसू बाँट लेंगे सब गेंदों से खेल लेंगे फिर बर्तन भर जाएंगे लबालब सबके चेहरों पर समभाव लिखे होंगे  पनघट छोड़ते समय  सब घूँघटों की आँखों में एक जुगनू होगी लडेंगी अंधेरे के ख़िलाफ़  अंधेरे में रहते हुए बाँटेंगी उषा -पर्व का प्रसाद सभी साथिनों के बीच कठिनतम व्रत ज़ारी है चुल्हे पर प्रसाद पक रहा है पूरी पवित्रता के साथ चीटियों और गिलहरियों को भी इधर आने की मनाही है पर अबकी बार  नहीं है यह पुरातन पर्व उनके लिए जिन्होंने घूँघट दिए हैं और घूँघटों के भीतर बूढ़े ताले में बंद कूपमंडूक दुनिया फुसफुसाहटों ने यही तय किया है सदियों चली लंबी वार्ताओं के बाद चकित मत हो  सज्जनों  उन्हें भी लिखना आ गया है अपने हिस्से का घोषणापत्र अब पढ़ने की बारी तुम्हारी है हाँ, पर ऐसी प्रतिक्रिया मत देना घूँघटों क

हारी नहीं नीरजा

भारत की अशोक चक्र प्राप्त बिटिया नीरजा भनोट (7 सितंबर 1963 - 5 सितंबर 1986 ) के प्रति एक श्रद्धांजलि हारी नहीं नीरजा ******************** वह लड़की  हाँ, वो लड़ी शर्म के ख़िलाफ़ डर के ख़िलाफ़ परंपरा के ख़िलाफ़ दहेज के ख़िलाफ़ अपने 'प्रताड़क परमेश्वर' के ख़िलाफ़ ज़माने की प्रतिकूल हवाओं के ख़िलाफ़ वह जीतती गई एक -एक क़दम  नापती हुई ज़मीन और आकाश की दूरी अब नरपिशाचों की बारी थी उसके भीतर सूझबूझ की शांत नदी बह रही थी साहस भी अनंत आसमानी हो चला था और वह उस विशाल विमान में एक जुझारू जटायु बन लड़ती रही रावणों से पंख नुचकर जख़्म रिसते रहे जीतना उसका तय था पर मृत्यु उसे अपने प्यार की तरह  छीन ले गई झटककर बस कुछ ही समय पहले तो जन्मदिवस की गोद से  रंगीन सपनों -सी मोमबत्तियाँ बुझ गईं जलने से पहले ही पथरायी माँ का अनमोल उपहार मुँह बाए बैठा रहा प्रतीक्षारत इस बार भी वही जीती थी एक क्या तीन सौ से अधिक अशोक चक्र कुर्बान हो जाएंगे वो दहशत में मरकर पुन: जी उठी  देशी और फिरंगी ज़िन्दगियाँ जहाँ भी होंगी फलती - फूलती अपन