अपने समय से आगे एक सावित्री
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बचपन में उसे अपने घर में मिली एक अंग्रेजी की किताब......उसने उत्सुकतावश जब उसके पन्नों को पढ़ने की चेष्टा की....तब पिता ने चिढ़कर किताब को खिड़की से बाहर फेंक दिया....पर उसका उत्साह खत्म नहीं हुआ. ...तमाम विरोधों के बावजूद पढ़ाई के प्रति ललक खत्म नहीं हुई.....हाँ, उसकी इच्छा तभी पूरी हो पाई जब उसका विवाह हुआ. ...वह भी एक ऐसे महात्मा से जो स्वयं शिक्षा को मनुष्य का सबसे बड़ा हथियार मानता था....फिर क्या था. ..वह उनकी शिष्या बनी और पढ़ पाने की पुरानी ज़िद्द पूरी हुई....पर उसका सफ़र यहीं नहीं रूका....उन्नीसवीं सदी के उस घोर कूपमंडूक समाज में ...जहाँ स्त्रियों की शिक्षा के बारे में सोचना भी पाप था...शिक्षा की मशाल को न केवल जलाया वरन् उसे कभी बुझने न दिया...पूना में विभिन्न जाति-धर्म की नौ लड़कियों को ले कर पहला कन्या पाठशाला खोला ...फिर अपने पति के सहयोग से विभिन्न स्थानों पर 18 स्कूल खोले....इस क्रम में उसे तत्कालीन समाज से कितना प्रतिरोध झेलना पड़ा होगा....यह सोचने की बात है. ...सचमुच...स्कूल जाते समय उसपर गोबर और पत्थर फेंके जाते...वह इस प्रतिरोध का जवाब बड़ी शालीनता से देती....एक अतिरिक्त साड़ी अपने साथ रखकर ...इस तरह वह आधुनिक भारत की पहली अध्यापिका बनी ...पहली प्रधानाध्यापिका भी. ..उसके क़दम यहीं तक नहीं सिमटे ...लंबी फेहरिस्त है. ...छुआछूत,बालविवाह , विधवा की नारकीय स्थिति, विधवा मुंडन, स्त्री असमानता आदि सामाजिक कुरीतियों के ख़िलाफ़ भी पति के साथ मिल कर मोर्चा खोला ....इस कारण उसे तत्कालीन अंग्रेजी शासन से सम्मान भी मिला और प्रोत्साहन भी. ...पति की मृत्यु के पश्चात 'सत्यशोधक समाज' की कमान भी संभाली....पति की चिता को अग्नि देने का साहस भी किया....मज़दूरों के लिए रात्रि पाठशाला खोला..अकाल पीड़ितों के लिए भोजनगृह बनाए ...प्लेग पीड़ितों की सेवा के दौरादौरान स्वयं भी शिकार हुई प्लेग का ..और एक डाक्टर दत्तक पुत्र को छोड़कर दुनिया से चल बसी
जी हाँ, यह सावित्री थी महाराष्ट्र के सतारा में जन्मी सावित्रीबाई फुले ....जिन्हें साथ मिला महान समाजसुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले का....वह मराठी साहित्य की अग्रदूत भी मानी जाती हैं. ..एक प्रतिभाशाली कवयित्री के रूप में ...'काव्य फुले', 'बावन कशी सुबोध रत्नाकर ' काव्य संग्रह रचने के अलावा... सामाजिक जन - चेतना के स्वर वाली कई पुस्तकों का संपादन भी किया....स्त्री समानता को प्रतिष्ठित करने वाली नई विवाह विधि की रचना की...नए मंगलाष्टक तैयार किए और उन्हीं सरल मंत्रों के द्वारा विधवा पुनर्विवाह भी कराया...सबसे बड़ी बात इन मंत्रों में पुरूष-स्त्री को बराबरी का दर्जा मिला, मित्र माना गया. ..
आर्थिक तंगी और सामाजिक-पारिवारिक विरोध के बावजूद....सावित्रीबाई फुले ने जो त्याग, समर्पण, सेवाभाव, जज़्बा और हिम्मत दिखाई....वह आज के दौर में भी प्रेरणादायी है. ...बग़ैर किसी जात-पात के उनके योगदान को देखें....क्योंकि महिलाओं की अलग से कोई जाति नहीं होती...सदियों से महिलाओं की बस एक ही जाति रही है. ....उनकी समस्याएं बहुत कुछ आज भी वहीं हैं. ...शिक्षा और साक्षरता के मुकाबले पुरुषों से बहुत पीछे हैं. ..अभी अपनी सोच के दायरे को बहुत फैलाने की ज़रूरत है....
नमन....समय से बहुत आगे चलने वाली इस सावित्री को.........
सावित्रीबाई फुले (3जनवरी1830 -10 मार्च 1897)
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बचपन में उसे अपने घर में मिली एक अंग्रेजी की किताब......उसने उत्सुकतावश जब उसके पन्नों को पढ़ने की चेष्टा की....तब पिता ने चिढ़कर किताब को खिड़की से बाहर फेंक दिया....पर उसका उत्साह खत्म नहीं हुआ. ...तमाम विरोधों के बावजूद पढ़ाई के प्रति ललक खत्म नहीं हुई.....हाँ, उसकी इच्छा तभी पूरी हो पाई जब उसका विवाह हुआ. ...वह भी एक ऐसे महात्मा से जो स्वयं शिक्षा को मनुष्य का सबसे बड़ा हथियार मानता था....फिर क्या था. ..वह उनकी शिष्या बनी और पढ़ पाने की पुरानी ज़िद्द पूरी हुई....पर उसका सफ़र यहीं नहीं रूका....उन्नीसवीं सदी के उस घोर कूपमंडूक समाज में ...जहाँ स्त्रियों की शिक्षा के बारे में सोचना भी पाप था...शिक्षा की मशाल को न केवल जलाया वरन् उसे कभी बुझने न दिया...पूना में विभिन्न जाति-धर्म की नौ लड़कियों को ले कर पहला कन्या पाठशाला खोला ...फिर अपने पति के सहयोग से विभिन्न स्थानों पर 18 स्कूल खोले....इस क्रम में उसे तत्कालीन समाज से कितना प्रतिरोध झेलना पड़ा होगा....यह सोचने की बात है. ...सचमुच...स्कूल जाते समय उसपर गोबर और पत्थर फेंके जाते...वह इस प्रतिरोध का जवाब बड़ी शालीनता से देती....एक अतिरिक्त साड़ी अपने साथ रखकर ...इस तरह वह आधुनिक भारत की पहली अध्यापिका बनी ...पहली प्रधानाध्यापिका भी. ..उसके क़दम यहीं तक नहीं सिमटे ...लंबी फेहरिस्त है. ...छुआछूत,बालविवाह , विधवा की नारकीय स्थिति, विधवा मुंडन, स्त्री असमानता आदि सामाजिक कुरीतियों के ख़िलाफ़ भी पति के साथ मिल कर मोर्चा खोला ....इस कारण उसे तत्कालीन अंग्रेजी शासन से सम्मान भी मिला और प्रोत्साहन भी. ...पति की मृत्यु के पश्चात 'सत्यशोधक समाज' की कमान भी संभाली....पति की चिता को अग्नि देने का साहस भी किया....मज़दूरों के लिए रात्रि पाठशाला खोला..अकाल पीड़ितों के लिए भोजनगृह बनाए ...प्लेग पीड़ितों की सेवा के दौरादौरान स्वयं भी शिकार हुई प्लेग का ..और एक डाक्टर दत्तक पुत्र को छोड़कर दुनिया से चल बसी
जी हाँ, यह सावित्री थी महाराष्ट्र के सतारा में जन्मी सावित्रीबाई फुले ....जिन्हें साथ मिला महान समाजसुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले का....वह मराठी साहित्य की अग्रदूत भी मानी जाती हैं. ..एक प्रतिभाशाली कवयित्री के रूप में ...'काव्य फुले', 'बावन कशी सुबोध रत्नाकर ' काव्य संग्रह रचने के अलावा... सामाजिक जन - चेतना के स्वर वाली कई पुस्तकों का संपादन भी किया....स्त्री समानता को प्रतिष्ठित करने वाली नई विवाह विधि की रचना की...नए मंगलाष्टक तैयार किए और उन्हीं सरल मंत्रों के द्वारा विधवा पुनर्विवाह भी कराया...सबसे बड़ी बात इन मंत्रों में पुरूष-स्त्री को बराबरी का दर्जा मिला, मित्र माना गया. ..
आर्थिक तंगी और सामाजिक-पारिवारिक विरोध के बावजूद....सावित्रीबाई फुले ने जो त्याग, समर्पण, सेवाभाव, जज़्बा और हिम्मत दिखाई....वह आज के दौर में भी प्रेरणादायी है. ...बग़ैर किसी जात-पात के उनके योगदान को देखें....क्योंकि महिलाओं की अलग से कोई जाति नहीं होती...सदियों से महिलाओं की बस एक ही जाति रही है. ....उनकी समस्याएं बहुत कुछ आज भी वहीं हैं. ...शिक्षा और साक्षरता के मुकाबले पुरुषों से बहुत पीछे हैं. ..अभी अपनी सोच के दायरे को बहुत फैलाने की ज़रूरत है....
नमन....समय से बहुत आगे चलने वाली इस सावित्री को.........
सावित्रीबाई फुले (3जनवरी1830 -10 मार्च 1897)
बेहद सार्थक पोस्ट... सादर नमन 🙏
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