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सितंबर, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ओह ......ये कामवालियाँ !

ओह...ये कामवालियाँ ! दाई...बाई ...या कहो कामवालियाँ वो देखो आ रहीं हैं सुबह- सुबह अपने हाथों को भांजकर  जोर- जोर से बतियाते अपनी अलग -सी पहचान लिए अपनी कछुए वाली पीठ  पर कई आकाश ढोते हुए । ×     ×    ×     ×    ×    ×    × उन्हें देखते ही मेमसाहबों के चेहरे खिल जाते हैं इत्मीनान है चलो आ तो गईं निपट जाएंगे झाड़ू-पोंछा, बर्तन और अलग से भी कुछ काम मक्खियों की भिनभिनाहट तो होगी रोज़ की तरह ×   ×     ×     ×    ×      ×     × आते ही कामवालियाँ फटाक से घुस जाती हैं ' पवित्र ' रसोईघर में बर्तनों पर छूट गए साबुन के दाग़ से डाँट भी खाती हैं कभी चुप रहती हैं कभी उबल पड़ती  हैं चूल्हे पर चढ़ी चाय के साथ ×   ×     ×     ×    ×      ×     × बरामदे से शुरू कर घर  के आखिरी कमरे तक पोंछा लगाती जाती हैं पर उन घरों के बाथरूम नहीं होते उनके लिए बने अघोषित पाबंदी सी है इसलिए दबाए रखती हैं अपना पेट काम खत्म होने पर तलाशती हैं सुनसान जगह बाहर सड़क पर या घर के पिछवाड़े सोचती हैं पता नहीं कितनी गंदगी च