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अक्तूबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

नहीं ये फ़ाहियानों और ह्वेनसांगों का वृतांत

नहीं यह फ़ाहियानों और ह्वेनसांगों का वृतांत *********************** सुना है  कि अपने देश से खत्म हो गया है  जातिवाद, भेदभाव और छुआछूत का कहर  सब मिलजुल के रहते हैं हर गाँव -शहर  सच है क्या ,नागरिकों  ऐसी कितनी सावित्रियाँ  मारी जाती हैं हर रोज़  कभी मानसिक तौर पर  कभी शारीरिक रूप से  ख़बर भी नहीं बन पाती  कि एक अजन्मा बच्चा भी  मारा गया है असमय  सदियों से नफ़रत की धधकती आग में  हार गया है कोई अभिमन्यु कहीं  प्रथम चक्रव्यूह के आने से पहले  मुझे पता नहीं क्यों  स्मरण आ रहा है  वट सावित्री व्रत  और वट वृक्ष के चारों ओर  परिक्रमा करती  सावित्री और सत्यवान को  बड़ी निष्ठा से पूजती औरतें  और खोज रही हूँ उनमें  उस हत्यारी ठकुराइन का चेहरा  कि कभी मांगा होगा उसने भी  सदा के लिए अपने पति का साथ  और अपने वीर पुत्र का सौभाग्य  फिर स्मरण हो आए हैं अनायास  प्राचीन इतिहास के वे अध्याय कि जानती होगी शायद वो ठकुराइन  पुरखों का काला इतिहास  कि बसती थीं तब  शहर से बाहर ही  अस्पृश्यों की 'गंदी' बस्तियाँ  क्योंकि दूषित

माथे पे सिंदूरी सूरत

माथे पे सिंदूरी सूरत ....... आज देश का एक बड़ा तबका भुखमरी, ग़रीबी, बेकारी ,साम्प्रदायिक व जातीय हिंसा जैसी समस्याओं से जूझ रहा है.... ऐसे में भी कुछ लोगों का शगल बन चुका है ...बेमतलब की बातों को हवा देकर नारी मुक्ति का नाम देना ....आश्चर्य तो तब होता है जब पुरुषों के हस्तक्षेप पर उन्हें  दुत्कारकर मेरी मर्जी कहने वाली तथाकथित आधुनिक नारीवादी महिलाएं भी इस मुद्दे को गंभीर बना रही हैं ...सोशल मीडिया में संग्राम छिड़ गया है .....सिंदूर के मुद्दे पर .....भ्रूण हत्या से लेकर स्त्री जाति की  शिक्षा और आत्मनिर्भरता के मुद्दे उनके लिए बासी पड़ चुके हैं .....अब हाॅट टाॅपिक है पर्व -त्योहारों का विरोध और बस इसे  स्त्रियों की गुलामी से जोड़ना ....इस तरह प्रगतिशीलता का लबादा ओढ़ना ......सोशल मीडिया की इस भूमिका को देखकर निराशा होती है   हर पर्व त्योहार अंधविश्वास नहीं होता है ...न ही कट्टरपंथी तत्वों का प्रायोजित संस्कार ......हाँ,उसमें  दूरबीन लेकर विज्ञान की थ्योरी खोजेंगे तो निराशा ज़रूर हाथ लगेगी .....यह आस्था की बात होती है ... और यह आस्था एक दिन की बनी हुई नहीं होती है ....सदियों की

वो आँखें बोलती हैं

वो आँखें बोलती हैं ..... उन दिनों मैं चौथी कक्षा की छात्रा थी .....जब उस 31 साल की महान अदाकारा का निधन हुआ था .....उस वक़्त तक मैंने उनकी कुछ ही फ़िल्में देखी थी....' आखिर क्यों ' 'मंथन ' 'भींगी पलकें 'और 'मिर्च मसाला '......वो भी दूरदर्शन के सौजन्य से .....पर वे मुझ पर अमिट छाप छोड़ चुकी थीं.... इसलिए जब यह मनहूस ख़बर सुनी ....तो सहज विश्वास नहीं हुआ.....  बाद में धीरे - धीरे उनकी और भी फिल्में देखी .....और वे झकझोरती रहीं ....अपने दमदार अभिनय से.... 'मंथन 'फिल्म का दुग्ध क्रांति से संबंधित गाना "मेरो गाम काथा पारे ,जहाँ दूध की नदिया बाहे "टीवी पर अक्सर बजता रहा ....और वे हम सबकी नज़रों के सामने रहीं .... साँवली त्वचा का ऐसा जादू..... बोलती आँखों का ऐसा सम्मोहन ...राष्ट्रीय पुरस्कारों का दोहरा सम्मान ....एक प्रखर नारीवादी और मराठी समाचार-वाचिका से समानांतर और व्यावसायिक सिनेमा के 80 अध्यायों पर अंकित सुनहरे नाम को श्रद्धांजलि .....हाँ ,स्मिता पाटिल !यूं तो लगभग सभी पुरानी अभिनेत्रियाँ मुझे प्रिय रही हैं.... पर आप इन सबसे अलग ह

चीज़ ....माल ...या टनाटन !

चीज़ ....माल ....या टनाटन ! _______________________ बड़ा पाॅपुलर हुआ था एक फिल्मी गाना वो शायद नब्बे का दौर था 'तू चीज़ बड़ी है मस्त ' और कुछ मर्दों को मिल गया था जैसे सर्टिफ़िकेट लड़कियों और औरतों को चीज़ मानने का यह चीज़ 'चीज' से भी मुलायम होती थी जिसे आता नहीं था प्रतिकार करना सपेरे की धुन पर नागिन सी झूम जाती थी खयालों में ही सही किसी वशीकरण यंत्र का उम्दा विज्ञापन लगती थी फिर माॅल संस्कृति के आगमन पर वे विंडो शाॅपिंग का सेक्सी माल हो गईं अब टनाटन और टंच दिखने लगी हैं देश के सठियाए कर्णधारों को पर उन्हें क्या जो गढ़ते हैं संबोधन और अद्भुत विशेषण उन्होंने नहीं सुना कभी धड़कते सीनों का अरमान कभी देखी नहीं गौर से पंख कटे चिड़ियों की उड़ान कभी पूछा नहीं मसली गई कलियों का हाल कभी छोड़ा नहीं तितलियों को बाग में आज़ाद बस वे जानते हैं औरत का औरत होना औरत होना मने कठपुतली कला का ज़िंदा होना कहा हँसो तो हँसना कहा रो तो रोना ज़बान उसकी और संवाद अपना खूब सजाया फिर नचाया और मन को जीभर बहलाया जी भर गया तो नए चेहरे ले आया पुराने की जगह अक्स