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फ़रवरी, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

प्रेम अभी क़त्लखाने में क़ैद निहत्था अहसास है

प्रेम अभी क़त्लखाने में क़ैद निहत्था अहसास है कि खिलना था सुंदर फूलों को जहाँ वह ठूंठ बनकर कुरूप खड़ा है तितलियाँ इस भयानक हादसे की शिकार हैं पत्थर मार रहे हैं बच्चे उनके पागलपन पर कोई रूदाली गा रहा है रूक रूक कर कोयलिया का भी गला रुंध गया है शायद तोड़े जा रहे हैं प्रेम के मंदिर डायनामाइट से घृणा को मातृभूमि से प्रेम का पर्यायवाची शब्द गढ़ा जा चुका है नैतिकता का मुखौटा चमक रहा है अनैतिकता के हर रावणी चेहरे पर लाल रंग नफ़रत की चाशनी में गाढ़ा होकर काला पड़ गया है बिल्कुल टूटे सूखे गुलाब की बेजान पंखुड़ियों की तरह ऐसे में मत कहो कि लिखो एक प्रेम कविता हमारे हाथों में तो नुकीले खंजर छुपे हैं कलम की शक्ल में ये प्रतिशोध के लोकप्रिय   हथियार हैं हमें डर है कि लिखना चाहें एक अदद प्रेम कविता कोई वीभत्स क़त्ल न हो जाए कठपुतली बनी उंगलियों से कि हर क़दम हमारा सीसीटीवी कैमरे की गहन निगरानी में है हँसना भी असंभव है प्रेमवाली नैसर्गिक हँसी और नौटंकी सबके वश की बात नहीं है बहुत शिद्दत से चाहते हैं सब परिंदे प्रेम करना कि वसंतोत्सव मना रहा है बाज़ार चीखकर फिर भी वे बेबस