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अप्रैल, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

निवेदन

निवेदन ---------------------- कभी पहनकर मेरा चेहरा अपने आईने में देखो चेहरे पर- अनगिनत लकीरें मिलेंगी जो अक्सर देती हैं उम्र का तकाजा कई कलियाँ बेज़ान पड़ी होंगी जो काल-कलवित हो जाती हैं खिलने से पहले ही भटकती हुई नदियाँ नहीं बता पाएंगी अपना  पता जो मिल ही नहीं पातीं कभी अपने सागर से आँखों के कोटरों के नीचे कई घरेलू नुस्खों के बावजूद शान से खड़े काले पहाड़ पढ़ा डालेंगे सारा भूगोल पर कानों को मत देखना जो सुनते - सुनते बहुतेरे उपदेश सुन्न पड़ गए हैं एकदम से और टूटपूंजिया रक्षा गार्डों की तरह दिख रहे हैं बड़ी मुस्तैदी से तैनात हाँ, छूकर उंगलियों से सुनना सूखी हुई  पर कभी गुलाबी रही दो पंखुड़ियों के बीच से धीमी-सी आवाज़ में किसी ज़माने का वही पुराना गीत जिसके घिसट रहे शब्दों में अब भी मौजूद हैं कुछ गुमशुदा अरमानों के ढहते बिखरते पल - पल मिट्टी होते खंडहर ! ------------- -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना तस्वीर गुगल से साभार 

अधेड़ औरतें

अधेड़ औरतें उनकी  ज़िन्दगी में हरे-भरे झुरमुट हैं  झुरमुट में चिड़ियों का मंगलगान है  मंगलगान में बच्चों की मुस्कान है  मुस्कान पर ही पूरी उम्र निस्सार है  इस उम्र में बीते हुनर का अहसास है  वे घरों का मज़बूत स्थायी आधार हैं   सृष्टि का अनुपम सुंदर  उपहार है  उनमें कलाकृतियों का भंडार है    पर ग़ौर से देखो ज़रा उनमें सन्नाटे से भरा रिक्त स्थान है  रिक्त स्थान में गुम हुआ आकाश है  आकाश में चिड़ियों की अधूरी उड़ान है  इस उड़ान में  क़ब्र में सोयी पहचान है                   -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना

धरा के बारे में

धरा के बारे में ************************ तपती है धरा दिन भर जाने किसके लिए उसने पाना नहीं जाना कभी बिल्कुल माँ की तरह बस खोया है अपना रूप- रंग, आकार जानती है वह पल-पल खोते -खोते मिट जाएगी एक दिन इस ब्रह्मांड में फिर भी उसे अच्छा लगता है मिट जाना शायद उनके लिए जो उसके अहसानों से बेफ़िक्र याद नहीं रखते उसका नाम या यह अहसास कि बीमार भी हो सकती है कभी दिन-रात खटने वाली बूढ़ी माँ ! -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना (5 जून, 1999 को लिखित छोटी सी कविता) फोटो इंटरनेट से साभार

.............तो बची रहेगी पूजा

सुना है  एक अमीर ने , कर दिया है  महादान दिया है अपनी बिटिया को, बहुत बड़ा ईनाम चर्चा बहुत हुई  उसकी ,   हो तुम भी  सावधान  सीखो समाज के रहनुमाओं, बेटी का रखो मान क्या हुआ  जो नहीं हम, जुकरबर्ग जैसा धनवान पूजते थे हम भी  उन्हें , घरों  की  थी आन-शान सुनो ग़ौर से अजन्मी चीखें ,  यूं मत बनो हैवान  नन्हीं लाशों से पटी है धरती,   कहाँ गया इंसान  हमने तो कर दी है ज़िन्दगी, अपनी बेटियों के नाम छेड़ते हैं फिर भी लोग, कब लाओगे घर का  चिराग़  अरे नादानों, फेंक दो, सवाल, कैंची- तेज औजार  खुद के अंदर झांको ,फिर हो गौरी का  मंत्रोच्चार कल ढूंढ़ते रह जाओगे ,  बेटों के  शरीक-ए-हयात  बड़ी कीमती हैं बेटियाँ, बचा लो न घर घर का चाँद  -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना,  चैत्र महाष्टमी ,2016

अहसान जीने के लिए

इस बार संकल्प लिया था रात ने नहीं रोएगी चाहे गिर जाए माथे पर बज्र या धँस जाए पैरों के नीचे की ज़मीन पर रात रोई फूट फूट कर जब नहीं आया चाँद गिर गया था माथे पर पूरा आकाश और मर गई घुट घुटकर बस कहने को सुबह हुई थी चाहे न हो सचमुच प्यार बस इतना करना अहसान आँसुओं की थोड़ी कद्र कर लेना जी लेगी थोड़ा और अभागी रात ! -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना चित्र इंटरनेट से साभार।