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गुब्बारे दीवारों से टंगे हुए

सभी मित्रों -पाठकों को नववर्ष की हार्दिक  शुभकामनाएं ! प्रस्तुत है इस  वर्ष  की प्रथम कविता इस ब्लॉग पर ।अपनी प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत कराते रहें।धन्यवाद ।



गुब्बारे दीवारों से टंगे हुए
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दो शब्द तारीफ़ों के अगर मिल जाते 
मन इंद्रधनुष के सप्तरंगों पर सैर कर आता
दिनभर के खालीपन में 
कोई प्राणवायु भरकर संजीवनी मिल जाती
हर शाम गुब्बारे खिल-खिल जाते 
चाँद -सितारों से जा टकराते
चाँदनी लिख जाती 
काले स्लेट पर मोतियों की गुथी कोई सुंदर वर्णमाला 
नन्हे बच्चे तोतली भाषा में सीखते 
बार -बार दोहराते
हम भी याद कर लेते फिर से
वही प्रेमगीत 
जिसे वर्षों से नहीं गाया गया
नून -तेल के जुगाड़ में 
घोंसले के बचाव में 
दौड़ते हुए पाँवों  की थकान में 

चलो न 
सीखे फिर से ककहरा 
कि गुम हो गई हैं
हृदय से निकली लाखों शब्दावलियाँ
बाज़ार में सस्ते सामान की तलाश में 
जोड़घटाव
गुणाभाग 
मोलभाव करते
पूरी पृथ्वी तीन  डगों में नापकर 
इत्मीनान का स्वांग 
रचते -रचते !
-सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना  


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