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निवेदन

निवेदन
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कभी पहनकर मेरा चेहरा
अपने आईने में देखो
चेहरे पर-
अनगिनत लकीरें मिलेंगी
जो अक्सर देती हैं उम्र का तकाजा
कई कलियाँ बेज़ान पड़ी होंगी
जो काल-कलवित हो जाती हैं
खिलने से पहले ही

भटकती हुई नदियाँ
नहीं बता पाएंगी अपना  पता
जो मिल ही नहीं पातीं कभी
अपने सागर से

आँखों के कोटरों के नीचे
कई घरेलू नुस्खों के बावजूद
शान से खड़े काले पहाड़
पढ़ा डालेंगे सारा भूगोल

पर कानों को मत देखना
जो सुनते - सुनते बहुतेरे उपदेश
सुन्न पड़ गए हैं एकदम से
और टूटपूंजिया रक्षा गार्डों की तरह
दिख रहे हैं बड़ी मुस्तैदी से तैनात

हाँ, छूकर उंगलियों से सुनना
सूखी हुई 
पर कभी गुलाबी रही दो पंखुड़ियों के बीच से
धीमी-सी आवाज़ में
किसी ज़माने का वही पुराना गीत
जिसके घिसट रहे शब्दों में
अब भी मौजूद हैं
कुछ गुमशुदा अरमानों के
ढहते बिखरते
पल - पल
मिट्टी होते
खंडहर !
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-सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना


तस्वीर गुगल से साभार 

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