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यही वो समय तो है

यही वो समय तो है 

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सूरज की ख़्वाहिशें हैं घर -घर 

कोई पागलों -सा हर आहट पे चौकन्ना हो जाता है

ढूंढता है अपनी उम्मीद के कदमों के निशान

पर निराशा ज्य़ादा बलवान है 

हताशा हताशा ......

और वह गला घोंट देता है 

ज़मीन फोड़ ऊपर आने को आतुर नवांकुर का 

कुछ सपने फिर अट्टहास करने की सजा  मृत्युदंड पाते हैं 

बदलियाँ नागिन का भयानक रूप धर लेती हैं  

चंदा को बार बार डँस लेती हैं 

यानी तय है कि सूरज की आस में 

चंदाएं हर रोज़ मारी जाती हैं 

इतनी अंधेरी रातों में जब सो जाती है 

बाक़ी दुनिया अपने - अपने दरवाजे़ बंद कर 

कोई न कोई दरवाज़ा हर रात खुलता है 

श्मशानों से बची रह गई कुछ चंदाएं 

 चमका देती हैं  घुप्प काला आसमान 

 एक साथ खुल उठते हैं दरवाज़े  

कि  सूरज  का स्वागत कर लें  

गूंज उठते हैं जयकारे   

सारी लेखनियाँ  बन जाती हैं भांट -चारण  

चंदाओं में भी सूरज -सा तेज आ गया है 

  यही तो वह समय है 

जब सूरज न आए  तो 

चंदा को बचाना ही होगा  

'साक्षियों ' और 'सिंधुओं 'की ख़ातिर 

रिवाज़ों को बदलना ही होगा  

चूड़ियों वाले नाज़ुक हाथों में भी  

रक्षा -सूत बांधना ही होगा 

बस तुम साथ दे दो तो ............. 

- सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना 

21अगस्त 2016.

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