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वो सोलह साल

वो सोलह साल

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तुम परिंदा थी, कैद में रही 

तुमने उजाले की तलाश की 

पर अंधेरे में अपने स्वर्णिम दिन काटे 

दमन था उन फिज़ाओं की निशानी 

जिसने लिख दी तुम्हारी  यह कहानी 

चूड़ियों के ख़्वाबों को दरकिनार कर 

रचा किसी तपस्विनी सा  तुमने 

अपनी ज़िन्दगी का महाकाव्य 

और कैसे चलती रही 

निरंतर शांत बग़ावत 

इक सफेद कबूतर का 

निर्मम बहेलियों के घर में  ही  


सोलह साल 

हाँ, पूरे सोलह साल 

कम नहीं होते 

वो क्या जानें फैशन ढोनेवाले  

जिन्हें आदत है शहादतों के बहाने 

चौराहे पर बनी आलीशान मूर्तियों को 

झूठे आँसुओं के संग नकली माला पहनाने की 

हाँ, तुम सही हो 

क्योंकि अब भी तुम्हारे साथ हैं वे लोग जिन्हें बुत नहीं चाहिए 

ज़िंदा लड़ाके की दरकार है 


तुम मेहंदी रचाओ सफेद हाथों में 

लिखो  चटक लाल रंग का नाम अपने प्रियतम का

अपनी मांग सजाओ बचे हुए सितारों से तुम्हें भी हक़ है वैसे ही जीने का  

जैसे जीती हैं सबकी बेटियाँ 

गाँधी के साथ लक्ष्मीबाई भी बनो 

जो रोकेंगे  

समय उनके गालों पर जड़ेगा ज़ोरदार  तमाचा 


तुम्हारे निकल आने के बाद भी बंद हैं  कैद में अनगिनत यक्षप्रश्न 

तुम सुलझा सकती हो उन्हें अब बेहतर अपने कटे परों को फिर से लगाकर 

लाल हो आए आसमानों में 

कोई सुराख कर 

बहुत लंबी है यात्रा 

ऐसे में निहायत ज़रूरी है 

थोड़ा विश्राम 

कुछ पागलों के फेंके गए पत्थरों की चोट से 

रिसने दो गरम लहू 

देखो ......आगे तुम्हारी लंबी पहाड़ी नदी है 

उसके साथ कलकल बहना है 

पर समुद्र में मिलने से पहले 

रास्ते के चट्टानों को सबक सिखाना है उनके पत्थरों को तराशकर बनाना है भीतर से अपनी तरह मुलायम 


हाँ ,तुम औरत हो 

इसलिए कर सकती हो सबकुछ 

ढेरों मंगलकामनाएं 

उन औरतों की तरफ़ से 

जो जानती हैं सचमुच 

जर्जर देह में भी होता है एक मज़बूत मन 

जिसके दिये की लौ 

कभी कम नहीं होती  !

-सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना 

13अगस्त 2016


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