भारत की अशोक चक्र प्राप्त बिटिया नीरजा भनोट (7 सितंबर 1963 - 5 सितंबर 1986 ) के प्रति एक श्रद्धांजलि
हारी नहीं नीरजा
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हारी नहीं नीरजा
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वह लड़की
हाँ, वो लड़ी
शर्म के ख़िलाफ़
डर के ख़िलाफ़
परंपरा के ख़िलाफ़
दहेज के ख़िलाफ़
अपने 'प्रताड़क परमेश्वर' के ख़िलाफ़
ज़माने की प्रतिकूल हवाओं के ख़िलाफ़
वह जीतती गई
एक -एक क़दम
नापती हुई ज़मीन और आकाश की दूरी
अब नरपिशाचों की बारी थी
उसके भीतर सूझबूझ की शांत नदी बह रही थी
साहस भी अनंत आसमानी हो चला था
और वह उस विशाल विमान में
एक जुझारू जटायु बन
लड़ती रही रावणों से
पंख नुचकर जख़्म रिसते रहे
जीतना उसका तय था
पर मृत्यु उसे अपने प्यार की तरह
छीन ले गई झटककर
बस कुछ ही समय पहले तो
जन्मदिवस की गोद से
रंगीन सपनों -सी मोमबत्तियाँ बुझ गईं
जलने से पहले ही
पथरायी माँ का अनमोल उपहार मुँह बाए
बैठा रहा प्रतीक्षारत
इस बार भी वही जीती थी
एक क्या
तीन सौ से अधिक अशोक चक्र कुर्बान हो जाएंगे
वो दहशत में मरकर पुन: जी उठी
देशी और फिरंगी ज़िन्दगियाँ
जहाँ भी होंगी फलती - फूलती
अपने स्मरण -पुष्पों की बरसात कर जाएंगी
मम्मी -पापा की दुलारियाँ होना
बड़ी बात नहीं
'नीरजा' होना बड़ी बात है
दहेज के ताने सुनना अच्छी बात नहीं
हैवान परंपराओं को घूँसे जड़ना
अच्छी बात है
डर से डरकर चूहे के बिल में छुप जाना
सच्ची बात नहीं
उसे गिरफ़्तार करना सच्ची बात है
पर शायद यह वही समझ सकती थी न
जिसकी ज़ान भी अपनी न थी !
-सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना
7/09/16
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