महादेवी वर्मा (26 मार्च 1907- 11 सितंबर 1987):
वह प्रसिद्ध कवयित्री रहीं....आधुनिक हिन्दी साहित्य में शायद सबसे प्रसिद्ध .....वह छायावाद के चार प्रमुख स्तंभों में एकमात्र महिला प्रतिनिधि रहीं....साहित्य अकादमी की फेलो बनने वाली पहली महिला भी......उन्हें साहित्य का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला.....पर यही परिचय नहीं हो सकता उस बदली का जिसे विस्तृत नभ का कोई कोना अपना नज़र नहीं आता ....सही मायने में इस बदली ने जन्म ही लिया था नव जीवन अंकुर को सर्वत्र प्रस्फुटित करने के लिए.....वह आधुनिक भारत में स्त्री विमर्श की जननी ही नहीं थीं. ...वरन् उनका संपूर्ण जीवन ही स्त्री विमर्श की पाठशाला है.
सुनने में बड़ा अजीब लगता है कि महादेवी वर्मा जी के पूर्व लगभग 200 वर्षों तक उनके परिवार में किसी कन्या का जन्म नहीं हुआ था या फिर जन्म होते ही कन्याएं मार दी जाती थीं.....परन्तु अगर उस समय के सामाजिक परिवेश को देखें तो उतना अजीब भी नहीं लगता है. ...खासकर आज के इक्कीसवीं सदी के वैज्ञानिक समाज की तुलना में ....जहाँ कोख में ही कन्या का किस्सा तमाम हो जाता है.
हाँ. ...एक पढ़े- लिखे सभ्रांत माता पिता की संतान होने के कारण घर की इस लक्ष्मी ने सात पीढ़ियों का रिकॉर्ड तोड़ा था एक जीवित बिटिया के रूप में. ...और दुर्गा पूजा के कारण महादेवी बनकर घर की दुलारी बन गईं.....तत्कालीन समाज की प्रथा के अनुरूप बाल - विवाह हुआ. .....पर इस बंधन को वह स्वीकार नहीं कर पाईं और आगे अपनी पढ़ाई को जारी रखा .....एक मेधावी छात्रा ने एम.ए. की डिग्री तक अपना यह सफ़र पूरा किया.....सात वर्ष की उम्र से कविता लेखन की शुरुआत करने वाली इस विदुषी को इलाहाबाद विश्वविद्यालय से निकलते समय तक अपार लोकप्रियता मिली चुकी थी. ....कभी बौद्ध भिक्षुणी बनने की इच्छा रखने वाली महादेवी को वहाँ स्त्री के प्रति बराबरी का भाव नज़र नहीं आया....और फिर क्या महात्मा गाँधी की प्रेरणा से समाज सेवा और स्वतंत्रता संग्राम की तरफ़ का रास्ता चुन लिया.....इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महती योगदान किया और प्राचार्य की भूमिका संभाली......
उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका "चाँद" का संपादन भी किया....साथ ही भारत में महिला कवि सम्मेलनों की नींव भी रखी....महिला शिक्षा और आर्थिक आत्म निर्भरता के लिए भी कार्य किए....उनके द्वारा सृजित काव्य में करूणा और वेदना की अजस्र धारा बहती है तो गद्य साहित्य में उनकी सामाजिक यथार्थ दृष्टि एवं सामाजिक चिंतनधारा स्पष्टत: नज़र आती है......'यामा' में उनके चार काव्य संग्रहों का वृहदाकार उनकी कलाकृतियों के साथ अद्भुत जुगलबंदी करता दिखाई पड़ता है.....उनका गद्य साहित्य न केवल विशिष्ट मानवीयता से परिपूर्ण है .....बल्कि प्रकृति और पशु-पक्षी प्रेम का भी दुर्लभ दस्तावेज है. ... उनके गीत कोमल शब्दों और नाद सौंदर्य से सजे रहस्यवादी जीवन -क्रंदन भर नहीं है.....'जाग तुझको दूर जाना', 'पंथ होने दो अपरिचित', 'पूछता क्यों शेष कितनी रात ,' हे धरा के अमर सूत , तुझको अशेष प्रणाम' जैसे गीत पुनर्जागरण की चेतना से ओतप्रोत हैं. ...
भारतीय स्त्री की उदारता, करूणा, सात्विकता, आधुनिक बौद्धिकता, गंभीरता और सरलता से समाविष्ट व्यक्तित्व को शत शत नमन....उनकी ये सर्वप्रसिद्ध पंक्तियाँ बार बार पढ़ी और सुनी जाती हैं. .....
मैं नीर भरी दुख की बदली
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा
क्रंदन में आहत विश्व हँसा
नयनों में दीपक से जलते
पलकों में निर्झरिणी मचली
मेरा पग -पग संगीत भरा
श्वांसों में स्वप्न पराग झरा
नभ के नव रंग बुनते दुकूल
छाया में मलय बयार पली
मैं क्षितिज भृकुटि पर घिर धूमिल
चिंता का भार बनी अविरल
रज-कण पर जल-कण हो बरसी
नव जीवन अंकुर बन निकली
पथ को न मलिन करता आना
पदचिह्न न दे जाता जाना
सुधि मेरे आगम की जग में
सुख की सिहरन बन अंत खिली
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली !
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वह प्रसिद्ध कवयित्री रहीं....आधुनिक हिन्दी साहित्य में शायद सबसे प्रसिद्ध .....वह छायावाद के चार प्रमुख स्तंभों में एकमात्र महिला प्रतिनिधि रहीं....साहित्य अकादमी की फेलो बनने वाली पहली महिला भी......उन्हें साहित्य का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला.....पर यही परिचय नहीं हो सकता उस बदली का जिसे विस्तृत नभ का कोई कोना अपना नज़र नहीं आता ....सही मायने में इस बदली ने जन्म ही लिया था नव जीवन अंकुर को सर्वत्र प्रस्फुटित करने के लिए.....वह आधुनिक भारत में स्त्री विमर्श की जननी ही नहीं थीं. ...वरन् उनका संपूर्ण जीवन ही स्त्री विमर्श की पाठशाला है.
सुनने में बड़ा अजीब लगता है कि महादेवी वर्मा जी के पूर्व लगभग 200 वर्षों तक उनके परिवार में किसी कन्या का जन्म नहीं हुआ था या फिर जन्म होते ही कन्याएं मार दी जाती थीं.....परन्तु अगर उस समय के सामाजिक परिवेश को देखें तो उतना अजीब भी नहीं लगता है. ...खासकर आज के इक्कीसवीं सदी के वैज्ञानिक समाज की तुलना में ....जहाँ कोख में ही कन्या का किस्सा तमाम हो जाता है.
हाँ. ...एक पढ़े- लिखे सभ्रांत माता पिता की संतान होने के कारण घर की इस लक्ष्मी ने सात पीढ़ियों का रिकॉर्ड तोड़ा था एक जीवित बिटिया के रूप में. ...और दुर्गा पूजा के कारण महादेवी बनकर घर की दुलारी बन गईं.....तत्कालीन समाज की प्रथा के अनुरूप बाल - विवाह हुआ. .....पर इस बंधन को वह स्वीकार नहीं कर पाईं और आगे अपनी पढ़ाई को जारी रखा .....एक मेधावी छात्रा ने एम.ए. की डिग्री तक अपना यह सफ़र पूरा किया.....सात वर्ष की उम्र से कविता लेखन की शुरुआत करने वाली इस विदुषी को इलाहाबाद विश्वविद्यालय से निकलते समय तक अपार लोकप्रियता मिली चुकी थी. ....कभी बौद्ध भिक्षुणी बनने की इच्छा रखने वाली महादेवी को वहाँ स्त्री के प्रति बराबरी का भाव नज़र नहीं आया....और फिर क्या महात्मा गाँधी की प्रेरणा से समाज सेवा और स्वतंत्रता संग्राम की तरफ़ का रास्ता चुन लिया.....इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महती योगदान किया और प्राचार्य की भूमिका संभाली......
उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका "चाँद" का संपादन भी किया....साथ ही भारत में महिला कवि सम्मेलनों की नींव भी रखी....महिला शिक्षा और आर्थिक आत्म निर्भरता के लिए भी कार्य किए....उनके द्वारा सृजित काव्य में करूणा और वेदना की अजस्र धारा बहती है तो गद्य साहित्य में उनकी सामाजिक यथार्थ दृष्टि एवं सामाजिक चिंतनधारा स्पष्टत: नज़र आती है......'यामा' में उनके चार काव्य संग्रहों का वृहदाकार उनकी कलाकृतियों के साथ अद्भुत जुगलबंदी करता दिखाई पड़ता है.....उनका गद्य साहित्य न केवल विशिष्ट मानवीयता से परिपूर्ण है .....बल्कि प्रकृति और पशु-पक्षी प्रेम का भी दुर्लभ दस्तावेज है. ... उनके गीत कोमल शब्दों और नाद सौंदर्य से सजे रहस्यवादी जीवन -क्रंदन भर नहीं है.....'जाग तुझको दूर जाना', 'पंथ होने दो अपरिचित', 'पूछता क्यों शेष कितनी रात ,' हे धरा के अमर सूत , तुझको अशेष प्रणाम' जैसे गीत पुनर्जागरण की चेतना से ओतप्रोत हैं. ...
भारतीय स्त्री की उदारता, करूणा, सात्विकता, आधुनिक बौद्धिकता, गंभीरता और सरलता से समाविष्ट व्यक्तित्व को शत शत नमन....उनकी ये सर्वप्रसिद्ध पंक्तियाँ बार बार पढ़ी और सुनी जाती हैं. .....
मैं नीर भरी दुख की बदली
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा
क्रंदन में आहत विश्व हँसा
नयनों में दीपक से जलते
पलकों में निर्झरिणी मचली
मेरा पग -पग संगीत भरा
श्वांसों में स्वप्न पराग झरा
नभ के नव रंग बुनते दुकूल
छाया में मलय बयार पली
मैं क्षितिज भृकुटि पर घिर धूमिल
चिंता का भार बनी अविरल
रज-कण पर जल-कण हो बरसी
नव जीवन अंकुर बन निकली
पथ को न मलिन करता आना
पदचिह्न न दे जाता जाना
सुधि मेरे आगम की जग में
सुख की सिहरन बन अंत खिली
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली !
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