एक दिन हवा ने पूछा
मुझसे मेरा पता
मैं पल भर घबड़ाई
फिर कहा
रूक जा थोड़ी देर
पहले किसी ने पूछा नहीं
ढूंढ़ कर बताती हूँ
मैं ढूंढने लगी अपना पता
उन्हीं हरी - भरी वादियों में
जहाँ मैं जाने कब से खड़ी थी
पर मिला नहीं कोई निशान
शायद वह वक़्त की मुट्ठी में
कहीं कैद पड़ा था
मैं पलकें झुकाए निरूत्तर रही
हवा ज़ोर से खिलखिलाई
और धीरे से बोली
तू तो लगती है
मेरी ही सहेली
जो बस भटकती रहती है
पर्वतों, घाटियों और कंक्रीटी वीथियों में
अपने पते से
बिल्कुल बेख़बर !
- सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना
पुरानी डायरी से
08 / 03 / 16
*हवा से संवाद
मुझसे मेरा पता
मैं पल भर घबड़ाई
फिर कहा
रूक जा थोड़ी देर
पहले किसी ने पूछा नहीं
ढूंढ़ कर बताती हूँ
मैं ढूंढने लगी अपना पता
उन्हीं हरी - भरी वादियों में
जहाँ मैं जाने कब से खड़ी थी
पर मिला नहीं कोई निशान
शायद वह वक़्त की मुट्ठी में
कहीं कैद पड़ा था
मैं पलकें झुकाए निरूत्तर रही
हवा ज़ोर से खिलखिलाई
और धीरे से बोली
तू तो लगती है
मेरी ही सहेली
जो बस भटकती रहती है
पर्वतों, घाटियों और कंक्रीटी वीथियों में
अपने पते से
बिल्कुल बेख़बर !
- सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना
पुरानी डायरी से
08 / 03 / 16
*हवा से संवाद
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