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ये चिराग़ बुझ रहे हैं


ये चिराग़ बुझ रहे हैं

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ओ माहज़बी

इतना दर्द कहाँ से लिया था उधार

काली  बदलियों  से

खामोश नदियों से

या फिर सागर की उफनती नमकीन लहरों से


 अरे हाँ, सुना है 

तुम्हारे पिता को चाहिये था एक कमाऊ पूत

शायद इसलिए तुम्हारी आपा के बाद

तुम्हारे अनपेक्षित आगमन पर दे दिया था 

तुम्हें यतीमखाने का कारावास 

वो तो तुम्हारी माँ थीं

जो  हर माँ की तरह

नहीं जानती थीं  बेटे और बेटी को जन्माने की पीड़ा 

या अपनी ही देह के टुकड़ों के बीच का अंतर

 उनके आँसू ही खींच लाए थे तुम्हें फिर से अपने आंगन  


अभी तो तुम्हारे खेलने- कूदने की उमर हुई थी न 

अभी -अभी तो तुम्हारे पंख निकले होंगे 

पढ़ाई -लिखाई छोड़कर 

निस्संदेह अच्छा नहीं लगा होगा क़ैद होना 

लाइट .....कैमरा....एक्शन .....की ऊबाऊ  दिनचर्या में 

चंद पैसों की ख़ातिर बेचना अपना बचपन 

इसलिए तुम्हारे अबोध मन को 

एक पिता ही पहला 'विलेन' नज़र आया होगा 

उफ्फ़.... कामयाबी जल्दी कहाँ मिलती है 

तुमने भी तो घिसे होंगे कितने पुराने  चप्पल 

कितने गिद्धों ने इस्तेमाल करने चाहे होंगे तुम्हारे हुनर 

तुम्हारे चमकते सितारे के पीछे कितने अमावस शहीद हुए होंगे फिर भी तुम थकी नहीं थी 

क्योंकि चाँद पाने की ललक कुछ ऐसी ही होती है 

वैसे तुम भी किसी चाँद से कम कहाँ थी 

तुम्हारे चेहरे में भी ज़माने ने दाग़ ढूंढ निकाले  

पर आँखों में करूणा कहाँ से भर लाई  इतनी

तुम्हें प्यार से बहुत प्यार था 

फिर भी बस तलाशती रह गई  

कई बुतों में अपने हिस्से का प्यार 

तुम्हारी लाख कोशिशों से भी उन बुतों में जान न आ पाई 

और तुम खुद टूट जाने की अटूट ज़िद पर कायम हो आई  


हाँ माहज़बी  ,

बहुतेरे इंसान दर्द झेलते हैं 

पर अनवरत चलते हैं  

यूं तो सभी चिराग़ों का बुझना एक दिन तय होता है 

पर तुम्हें तो अभी और जलना था 

जल-जलकर निखरना था 

उन्हें अँगूठा दिखाना था जिनके लिए तुम महज़ सीढ़ियां थी 

बतलाना था  कि तन्हा चाँद भी अमर होता है 

'ये चिराग़ बुझ रहे हैं तुम्हारे साथ जलते जलते  '

पर शायद बुझ नहीं पाएंगे एकदम से

तुम्हारे चिराग़ों की रौशनी को बहुतों ने उधार ले ली हैं तुमसे 

तुम्हारा दर्द बाँट लिया है अनगिनत नई - पुरानी भींगी  आँखों ने 

सुना है दर्द बाँटने से कम हो जाता है ..................

           -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना

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' ट्रैजेडी क्वीन ' मीना कुमारी (1 अगस्त 1932 - 31 मार्च 1972 )ने अपनी इच्छा के विरुद्ध पिता के दबाव में फ़िल्मी दुनिया में छह -सात  वर्ष की आयु में ही क़दम  रखा था ।स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी ताकि  तीन बहनों वाले परिवार  का ख़र्च चल सके। विजय भट्ट की 'लेदरफेस' से बाल कलाकार की भूमिका  शुरू हुई जो  लगभग आगे की बीस फ़िल्मों तक जारी रही।दस वर्षों के संघर्ष के बाद  1952 में 'बैजू बावरा' से पहचान मिली ।फिर तो पचास और साठ का दशक लगभग उनके नाम रहा ।'परिणीता, 'बैजू बावरा ', 'साहब, बीवी और गुलाम' तथा 'काजल ' के लिए चार बार फिल्मफेयर अवार्ड से सम्मानित हुईं।इसके अलावा कई हिट फ़िल्में सिनेप्रेमियों  के दिलों में यादगार बन गईं, जहां उनके दमदार अभिनय में एक भारतीय नारी की साकार तस्वीर नज़र आती थी।सोलह वर्षों  में बन  सकी 'पाकीज़ा'  आज एक क्लासिक का दर्जा ले चुकी है।अपने पति कमाल अमरोही से अलगाव के बाद बिखरती गईं।कई दामन थामे पर शायद कांटें अधिक मिले।तीन दशक तक संजीदा अभिनय करने वाली इस लोकप्रिय अदाकारा के पास अस्पताल का अंतिम बिल चुकाने के पैसे न थे।उनकी त्रासदीपूर्ण  मृत्यु के बाद गुलज़ार साहब के माध्यम से उनकी शायरा होने का सही पता  फैन्स को लग सका। "मीना कुमारी की शायरी" पुस्तक ने उनकी  रूहानी शायरी को सबको लिए उपलब्ध कराया। उन्हें यह शायरी उनके हालातों से तो मिली ही थी, कुछ योगदान  आनुवंशिक भी रहा होगा क्योंकि उनकी नानी  रवींद्र नाथ टैगोर के परिवार से थीं।नमन उनकी अदाकारी को , उनके सादगीपूर्ण सौंदर्य को, नमन उनकी शायरी को।


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