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बीती सदी का बचपन और हमारे हिस्से के खेल

बीती सदी का बचपन और हमारे हिस्से के खेल
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उन  दिनों चाँद सितारों जड़ित खुला आसमान 'उनके' लिए था
हमारे हिस्से में चूड़ियों के भीतर की परिधि का विधान था
जन्म लेते ही निर्धारित हो चुके थे
ज़िन्दगी के अनगिनत चक्रव्यूही फेरे
सजाए गए घरौंदे में दिखलाए गए
सुंदर चाहरदीवारियों के लंबे घेरे
गुड्डे- गुड़ियों के खेल में समाहित थे रसोई के काम
कराए गए ज़िंदा गुड़ियों को कड़ाही-कलछी की पहचान
हर दिन संस्कारों  की निकलती थी नई परिभाषा
खेलकूद में हिस्से को तरसती रहीं दिन ब दिन निखरतीं गृहशोभा
रातों को उड़ती रहीं देखकर चिड़ियों की लंबी उड़ान
उजालों की सड़क पर  सायकिल चलाना भी था अपराध

उस समय अपने हिस्से के खेल सिर्फ़ खेल थे
कठपुतलियाँ कहाँ जानती हैं उंगलियों का मकसद
बाद में जब होश आ ही गया
घड़ी की सूइयों की बुढ़िया चाल में
तब जवां चाबियों ने खोले बंद खंडहरों के राज़
कि क्लास में फर्स्ट आने से ज़्यादा
क्यों मिलती थी शाबाशी
बेसन के हलवे ठीकठाक बना लेने पर
और यह रहस्य भी
कि लड़कियों के खिलौने क्यों होते थे अलग
बंदूकों, गाड़ियों और हेलीकॉप्टरों की जगह
उन नन्हीं अबोध हथेलियों को रचाना होता था
कुछ मूक गुड़ियों का धूमधाम से ब्याह
और सजाना होता था रंग बिरंगे सपनेवाले गोटे से
उनका झिलमिल झिलमिल घर -संसार !
-सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना

बाल दिवस की शुभकामनाएं ....नन्हीं आधी आबादी को भी....अब इक्कीसवीं सदी का कालखंड है ....कुछ हद तक खिलौनों में भेदभाव कम हुआ है ...पर  अभी और  .....अभी और
"बेटियों का भी होता है प्यारा सा बचपन
थोड़ा सा चंचल    थोड़ा सा नटखट "


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