गर्व से कहो हम इंसान हैं ....काश !
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मैं ढूंढ रही थी
इस आभासी दुनिया में
इंसानियत का एक समूह
जिसके चेहरे पर न चमकता हो
किसी कायस्थ, ब्राह्मण, राजपूत,बनिए
या दलित का
अति गर्वित - सा भाल
जिसके हुँकारित हाथों में नहीं हो
चटक भगवा ध्वज
या जिसकी अकड़ी हुई मीनार पर
नहीं लहरा रहा हो झूमकर
हरियाला मज़हबी झंडा
मेरी उँगलियाँ थककर सो गईं
गूगल पर सर्च करते करते
बीते कई दिनों से सोच रही हूँ
मैं ही पागल या निरा नादान हूँ
अब तो सांझा चूल्हों के किस्से पुराने हो गए
लोग तब से अब तक कितने ही सयाने हो गए
नए नोटों पर मंगलयान इतराता हो तो क्या
हमारे गर्वित होने के सब बहाने
वही घिसे -पिटे अफ़साने रह गए
क्या करें
उन्हें गर्व होता है उधर
और इधर लज़्ज़ा शरमा कर
अंधेरे घर की सबसे भीतरी कोठरी में
मोटे पर्दे के पीछे
सोने का स्वांग रचाती है
सिसक सिसक कर हर रात रोती जाती है
लंबी -सी घूँघट के नीचे
सात जन्मों काआदर्श पत्नी-धर्म
बस यूँ ही निभाती चली जाती है !
*तस्वीर गूगल से साभार
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