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तुम्हें लज्जा कभी नहीं आती

तुम्हें लज्जा कभी नहीं आती 

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क्या नाम दूँ  तुम्हें 

दुर्योधन,दुःशासन या 

कलियुग का कुलनाशक 

नाम देने से भी क्या फ़र्क पड़ता है 

पत्थरों  पर कहाँ असर होता है  

तुम्हें तो लज्जा कभी नहीं आती 


देवी की आराधना तुमने भी की होगी 

क्या माँगा होगा गिड़गिड़ाकर उसके चरणों में 

धन -बल या फिर कोई छल 

देखी तो कभी होगी अलबम में 

अपनी माँ की जवानी की तस्वीर 

क्या तुम्हें वह सूरत उस वक़्त नज़र नहीं आती 

जब अपने आसान 'शिकार'  पर हमला करते हुए 

लज्जा कभी नहीं आती  


तुम्हारी भी कोई बहन कहीं 

बंद कमरे की घुटन तजकर 

हर शाम की सुहानी हवा में  थोड़ी देर 

आज़ाद चिड़िया बन जाना चाहती होगी 

क्या तुमने कतर दिए हैं उसके सफेद पंख

या बाँध दी हैं बेड़ियाँ उसके नाज़ुक पाँवों में

तुम्हें अपनी स्वच्छंदता को झूठी मर्दानगी बताते हुए 

लज्जा कभी नहीं आती 


सुना है कि खत्म हो रहे हैं जंगल 

और खत्म हो रहे हैं भेड़िये 

तुम किस प्रजाति के हो बहुरूपिये 

बतला दो न 

ताकि कल को तुम्हारी बेटियाँ भी 

ईजाद कर रख सकें ऐसे हथियार 

जो तुम्हारे खूनी पंजों को तोड़ सकें 

तुम्हारी वहशीपन वाली आँखों को फोड़ सकें 

क्योंकि तुम्हें लज्जा कभी नहीं आती 


सुनो ,उन्होंने पहननी छोड़ दी हैं 

काँच की गुलाबी नाज़ुक चूड़ियाँ  

माथे के पुरातन आँचल को उखाड़ फेंका है 

पायल -बिंदियों के बंधन को खोल रखा है 

वे लिख और गा रही हैं क्रांति के नए-नए गीत 

भीख नहीं माँग रही किसी दरवाज़े पर 

अपने हक़ के लिए सिंहनियाँ बन हुंकार रही हैं 

छुप जाओ और हो सके तो पहन लो चूड़ियाँ 

तुम्हें लज्जा कभी नहीं आती  !

-सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना 

23/09/17

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