नहीं यह फ़ाहियानों और ह्वेनसांगों का वृतांत
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सुना है
कि अपने देश से खत्म हो गया है 
जातिवाद, भेदभाव और छुआछूत का कहर 
सब मिलजुल के रहते हैं हर गाँव -शहर 
सच है क्या ,नागरिकों 
ऐसी कितनी सावित्रियाँ 
मारी जाती हैं हर रोज़ 
कभी मानसिक तौर पर 
कभी शारीरिक रूप से 
ख़बर भी नहीं बन पाती 
कि एक अजन्मा बच्चा भी 
मारा गया है असमय 
सदियों से नफ़रत की धधकती आग में 
हार गया है कोई अभिमन्यु कहीं 
प्रथम चक्रव्यूह के आने से पहले 
मुझे पता नहीं क्यों 
स्मरण आ रहा है 
वट सावित्री व्रत 
और वट वृक्ष के चारों ओर 
परिक्रमा करती 
सावित्री और सत्यवान को 
बड़ी निष्ठा से पूजती औरतें 
और खोज रही हूँ उनमें 
उस हत्यारी ठकुराइन का चेहरा 
कि कभी मांगा होगा उसने भी 
सदा के लिए अपने पति का साथ 
और अपने वीर पुत्र का सौभाग्य 
फिर स्मरण हो आए हैं अनायास 
प्राचीन इतिहास के वे अध्याय
कि जानती होगी शायद वो ठकुराइन 
पुरखों का काला इतिहास 
कि बसती थीं तब 
शहर से बाहर ही 
अस्पृश्यों की 'गंदी' बस्तियाँ 
क्योंकि दूषित हो जाती थी 
उनके गंध से मुख्य बस्तियाँ 
और बाज़ार आने पर 
बजाते थे चांडाल 
लकड़ी के टुकड़े 
कि दूर रहें उनसे 
और भूल से भी 
अपवित्र न हो जाएं 
ईश्वर की पवित्र संतान !
सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना 
28 अक्टूबर 2017 
*इक्कीसवीं सदी के आज के भारत के उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के एक गाँव में  एक दलित  गर्भवती महिला ' सावित्री ' को इस अपराध में पीट कर मार डाला गया कि उसके 'अछूत 'बर्तन से एक उच्च जाति की महिला का शरीर छू गया । यह कविता इसी दुखद एवं शर्मनाक घटना के विरोध में लिखी गई है ...क्योंकि यह सावित्री भी एक महिला, एक इंसान थी  उस बहादुर सावित्री की तरह ।

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