माथे पे सिंदूरी सूरत .......
आज देश का एक बड़ा तबका भुखमरी, ग़रीबी, बेकारी ,साम्प्रदायिक व जातीय हिंसा जैसी समस्याओं से जूझ रहा है.... ऐसे में भी कुछ लोगों का शगल बन चुका है ...बेमतलब की बातों को हवा देकर नारी मुक्ति का नाम देना ....आश्चर्य तो तब होता है जब पुरुषों के हस्तक्षेप पर उन्हें दुत्कारकर मेरी मर्जी कहने वाली तथाकथित आधुनिक नारीवादी महिलाएं भी इस मुद्दे को गंभीर बना रही हैं ...सोशल मीडिया में संग्राम छिड़ गया है .....सिंदूर के मुद्दे पर .....भ्रूण हत्या से लेकर स्त्री जाति की शिक्षा और आत्मनिर्भरता के मुद्दे उनके लिए बासी पड़ चुके हैं .....अब हाॅट टाॅपिक है पर्व -त्योहारों का विरोध और बस इसे स्त्रियों की गुलामी से जोड़ना ....इस तरह प्रगतिशीलता का लबादा ओढ़ना ......सोशल मीडिया की इस भूमिका को देखकर निराशा होती है
हर पर्व त्योहार अंधविश्वास नहीं होता है ...न ही कट्टरपंथी तत्वों का प्रायोजित संस्कार ......हाँ,उसमें दूरबीन लेकर विज्ञान की थ्योरी खोजेंगे तो निराशा ज़रूर हाथ लगेगी .....यह आस्था की बात होती है ... और यह आस्था एक दिन की बनी हुई नहीं होती है ....सदियों की लोक संस्कृति के अस्तित्व के गर्भ से निकली है ....बिहार का छठ महापर्व भी ऐसी ही पुरातन लोक संस्कृति का हिस्सा है ...शायद नदी के तट पर बसी सभ्यता ने नदी के जल में अपने अहम् को विसर्जित करने का कोई तरीका ढूंढ निकाला हो ....या फिर सारे संसार को आलोकित करनेवाले सूर्य की कृपा के प्रति कृतज्ञता जाहिर करने का जरिया बनाया हो ..... जो भी हो इस अनुष्ठान से किसी को कोई क्षति दिखाई नहीं पड़ती है .....फिर भी कुछ लोगों को सस्ती लोकप्रियता की आदत होती है .....
अब उनका निशाना है .... छठ व्रतियों द्वारा नाक से मांग तक सिन्दूर भरे जाने का भद्दा मज़ाक ...अरे लोकसंस्कृति एवं स्थानीय रीति -रिवाज भी कोई चीज़ होती है .....हर क्षेत्र और स्थान की कुछ विशिष्टता होती है ....अब यह तो नहीं कोई पूछेगा कि असम में बिहू क्यों मनाते हैं ...पंजाब में लोहड़ी क्यों मनाते हैं ...केरल में ओणम तो तमिलनाडु में पोंगल क्यों मनाते हैं ...और मनाते हैं तो ऐसे क्यों मनाते हैं ...एक ही तरह की वैज्ञानिक पद्धति से क्यों नहीं मनाते ....फिर बिहार की इस विशिष्ट पहचान पर एतराज क्यों ....हर जगह नारी मुक्ति का प्रश्न घुसाना ज़रूरी क्यों बन जाता है ...दुर्गा पूजा के समय बंगाली स्त्रियों का सिंदूर खेला कितना मनमोहक होता है ....ऐसी सैकड़ो लोक संस्कृतियों से मिलकर ही तो देश की सतरंगी लुभावनी छटा बनती है ....
छठ महापर्व ही नहीं बिहार के प्रायः प्रत्येक अनुष्ठान व शादी - ब्याह में ऐसे लंबे सिंदूर का रिवाज रहा है ...थोड़ी देर के लिए ऐसे रिवाजों - परंपराओं को मान लेने से महिलाओं की नाक या इज्ज़त छोटी नहीं हो जाती है ...वे इसे प्यार और आस्था से अपनाती हैं ...इससे वे निपट मूर्ख नहीं बन जाती हैं ....अपनी नारीवादी चेतना का खयाल उन्हें रहता है ....अब गाँव-देहात की औरतें भी अपने अधिकारों के प्रति काफी सचेत हैं और बिहारी औरतें भी इसका अपवाद नहीं हैं .....
पर हाँ , कुछ कट्टरपंथी तत्वों की बाहियात धमकियों पर ध्यान दें तो ऐसा भी नहीं कि आम दिनों में भी सिंदूर नहीं लगाने से कयामत आ जाती हो या किसी का कुछ बिगड़ जाता हो ....यह तो बस बहुत से लोगों के लिए दांपत्य प्रेम की बहुमूल्य निशानी है ....आज की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में किसी स्त्री के पास इतना समय नहीं होता है कि वह हमेशा सोलहो श्रृंगार कर सज -धज कर बैठे ....परंतु यह भी सच है कि जब भी मौक़ा मिले ....पर्व -त्योहारों के बहाने ही सही ...अधिकांश लोग (केवल स्त्रियाँ ही नहीं )सजना -संवरना चाहते हैं और खुद को सुंदर देख आत्मविश्वास से भर उठते हैं ....अब देखिए न ...साड़ी ही अपनी जटिलता के कारण रोजमर्रा की जिंदगी से गायब होती जा रही है ....परंतु कोई स्तरीय पार्टी -फंक्शन हो ...या पर्व -त्योहार ...आधुनिक स्त्रियाँ भी इसे पहन कर इतराती फिरती हैं .....और फिर साड़ी के साथ मैचिंग चूड़ियाँ, बिन्दी और माथे पर सिंदूर का टीका उनके चेहरे की दमक को बयान करने के लिए काफी होता है ...
हाल में एक वीडियो वायरल हुआ है जिसमें सिंदूर के कारण महिलाओं के आई क्यु यानी बुद्धि पर असर पड़ने की बात कही गयी है ....दरअसल सस्ते सिंदूर में लेड की मात्रा ज़्यादा होती है जिससे सिरदर्द,तनाव ,बाल सफेद होना और खुजली तथा त्वचा रोग जैसे लक्षण उत्पन्न होते हैं ....लेकिन इसका संबंध बुद्धि विवेक से है ...इस बात का कोई वैज्ञानिक आधार सामने नहीं आया है ....
जो भी हो ...सिंदूर को अगर सौंदर्य प्रसाधन की तरह भी देखें ....तो जिन्हें पसंद हो लगाएं ....जिन्हें नहीं पसंद हो न लगाएं ....इसके लिए इतनी हायतौबा न मचाएं ...बहुत से ज़रूरी मुद्दे हैं इसके सिवा ....और जिन्हें सिंदूरी प्रेम से मोह हो कृपया उन पर फब्तियाँ न कसें ....कभी इत्मीनान से नागार्जुन की वह कविता पढ़ें जिसकी कुछ पंक्तियाँ हैं :
"सुनोगी तुम तो उठेगी हूक
मैं रहूँगा सामने (तस्वीर में )पर मूक
सांध्य नभ में पश्चिमांत समान
लालिमा का जब करूण आख्यान
सुना करता हूँ,सुमुखि उस काल
याद आता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल "
या फिर सुनें मुकेश की आवाज़ में सरस्वतीचंद्र फिल्म के एक बेहद खूबसूरत गाने की ये पंक्तियाँ :
"माथे पे सिंदूरी सूरत होठों पे दहकते अंगारे
साया भी जो तेरा पड़ जाए आबाद हो दिल का वीराना "
-सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना
25/10/17
तस्वीर पत्रिका न्यूज़ से साभार ।
आज देश का एक बड़ा तबका भुखमरी, ग़रीबी, बेकारी ,साम्प्रदायिक व जातीय हिंसा जैसी समस्याओं से जूझ रहा है.... ऐसे में भी कुछ लोगों का शगल बन चुका है ...बेमतलब की बातों को हवा देकर नारी मुक्ति का नाम देना ....आश्चर्य तो तब होता है जब पुरुषों के हस्तक्षेप पर उन्हें दुत्कारकर मेरी मर्जी कहने वाली तथाकथित आधुनिक नारीवादी महिलाएं भी इस मुद्दे को गंभीर बना रही हैं ...सोशल मीडिया में संग्राम छिड़ गया है .....सिंदूर के मुद्दे पर .....भ्रूण हत्या से लेकर स्त्री जाति की शिक्षा और आत्मनिर्भरता के मुद्दे उनके लिए बासी पड़ चुके हैं .....अब हाॅट टाॅपिक है पर्व -त्योहारों का विरोध और बस इसे स्त्रियों की गुलामी से जोड़ना ....इस तरह प्रगतिशीलता का लबादा ओढ़ना ......सोशल मीडिया की इस भूमिका को देखकर निराशा होती है
हर पर्व त्योहार अंधविश्वास नहीं होता है ...न ही कट्टरपंथी तत्वों का प्रायोजित संस्कार ......हाँ,उसमें दूरबीन लेकर विज्ञान की थ्योरी खोजेंगे तो निराशा ज़रूर हाथ लगेगी .....यह आस्था की बात होती है ... और यह आस्था एक दिन की बनी हुई नहीं होती है ....सदियों की लोक संस्कृति के अस्तित्व के गर्भ से निकली है ....बिहार का छठ महापर्व भी ऐसी ही पुरातन लोक संस्कृति का हिस्सा है ...शायद नदी के तट पर बसी सभ्यता ने नदी के जल में अपने अहम् को विसर्जित करने का कोई तरीका ढूंढ निकाला हो ....या फिर सारे संसार को आलोकित करनेवाले सूर्य की कृपा के प्रति कृतज्ञता जाहिर करने का जरिया बनाया हो ..... जो भी हो इस अनुष्ठान से किसी को कोई क्षति दिखाई नहीं पड़ती है .....फिर भी कुछ लोगों को सस्ती लोकप्रियता की आदत होती है .....
अब उनका निशाना है .... छठ व्रतियों द्वारा नाक से मांग तक सिन्दूर भरे जाने का भद्दा मज़ाक ...अरे लोकसंस्कृति एवं स्थानीय रीति -रिवाज भी कोई चीज़ होती है .....हर क्षेत्र और स्थान की कुछ विशिष्टता होती है ....अब यह तो नहीं कोई पूछेगा कि असम में बिहू क्यों मनाते हैं ...पंजाब में लोहड़ी क्यों मनाते हैं ...केरल में ओणम तो तमिलनाडु में पोंगल क्यों मनाते हैं ...और मनाते हैं तो ऐसे क्यों मनाते हैं ...एक ही तरह की वैज्ञानिक पद्धति से क्यों नहीं मनाते ....फिर बिहार की इस विशिष्ट पहचान पर एतराज क्यों ....हर जगह नारी मुक्ति का प्रश्न घुसाना ज़रूरी क्यों बन जाता है ...दुर्गा पूजा के समय बंगाली स्त्रियों का सिंदूर खेला कितना मनमोहक होता है ....ऐसी सैकड़ो लोक संस्कृतियों से मिलकर ही तो देश की सतरंगी लुभावनी छटा बनती है ....
छठ महापर्व ही नहीं बिहार के प्रायः प्रत्येक अनुष्ठान व शादी - ब्याह में ऐसे लंबे सिंदूर का रिवाज रहा है ...थोड़ी देर के लिए ऐसे रिवाजों - परंपराओं को मान लेने से महिलाओं की नाक या इज्ज़त छोटी नहीं हो जाती है ...वे इसे प्यार और आस्था से अपनाती हैं ...इससे वे निपट मूर्ख नहीं बन जाती हैं ....अपनी नारीवादी चेतना का खयाल उन्हें रहता है ....अब गाँव-देहात की औरतें भी अपने अधिकारों के प्रति काफी सचेत हैं और बिहारी औरतें भी इसका अपवाद नहीं हैं .....
पर हाँ , कुछ कट्टरपंथी तत्वों की बाहियात धमकियों पर ध्यान दें तो ऐसा भी नहीं कि आम दिनों में भी सिंदूर नहीं लगाने से कयामत आ जाती हो या किसी का कुछ बिगड़ जाता हो ....यह तो बस बहुत से लोगों के लिए दांपत्य प्रेम की बहुमूल्य निशानी है ....आज की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में किसी स्त्री के पास इतना समय नहीं होता है कि वह हमेशा सोलहो श्रृंगार कर सज -धज कर बैठे ....परंतु यह भी सच है कि जब भी मौक़ा मिले ....पर्व -त्योहारों के बहाने ही सही ...अधिकांश लोग (केवल स्त्रियाँ ही नहीं )सजना -संवरना चाहते हैं और खुद को सुंदर देख आत्मविश्वास से भर उठते हैं ....अब देखिए न ...साड़ी ही अपनी जटिलता के कारण रोजमर्रा की जिंदगी से गायब होती जा रही है ....परंतु कोई स्तरीय पार्टी -फंक्शन हो ...या पर्व -त्योहार ...आधुनिक स्त्रियाँ भी इसे पहन कर इतराती फिरती हैं .....और फिर साड़ी के साथ मैचिंग चूड़ियाँ, बिन्दी और माथे पर सिंदूर का टीका उनके चेहरे की दमक को बयान करने के लिए काफी होता है ...
हाल में एक वीडियो वायरल हुआ है जिसमें सिंदूर के कारण महिलाओं के आई क्यु यानी बुद्धि पर असर पड़ने की बात कही गयी है ....दरअसल सस्ते सिंदूर में लेड की मात्रा ज़्यादा होती है जिससे सिरदर्द,तनाव ,बाल सफेद होना और खुजली तथा त्वचा रोग जैसे लक्षण उत्पन्न होते हैं ....लेकिन इसका संबंध बुद्धि विवेक से है ...इस बात का कोई वैज्ञानिक आधार सामने नहीं आया है ....
जो भी हो ...सिंदूर को अगर सौंदर्य प्रसाधन की तरह भी देखें ....तो जिन्हें पसंद हो लगाएं ....जिन्हें नहीं पसंद हो न लगाएं ....इसके लिए इतनी हायतौबा न मचाएं ...बहुत से ज़रूरी मुद्दे हैं इसके सिवा ....और जिन्हें सिंदूरी प्रेम से मोह हो कृपया उन पर फब्तियाँ न कसें ....कभी इत्मीनान से नागार्जुन की वह कविता पढ़ें जिसकी कुछ पंक्तियाँ हैं :
"सुनोगी तुम तो उठेगी हूक
मैं रहूँगा सामने (तस्वीर में )पर मूक
सांध्य नभ में पश्चिमांत समान
लालिमा का जब करूण आख्यान
सुना करता हूँ,सुमुखि उस काल
याद आता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल "
या फिर सुनें मुकेश की आवाज़ में सरस्वतीचंद्र फिल्म के एक बेहद खूबसूरत गाने की ये पंक्तियाँ :
"माथे पे सिंदूरी सूरत होठों पे दहकते अंगारे
साया भी जो तेरा पड़ जाए आबाद हो दिल का वीराना "
-सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना
25/10/17
तस्वीर पत्रिका न्यूज़ से साभार ।
सही कहा आपने , आपकी बात से सहमत हूँ , हर मान्यता को वैज्ञानिक धरातल पर तौला नहीं जा सकता सदियों पुरानी संस्कृति है और संस्कृति ही इतिहास बनती है. laparoscopy
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