वो आँखें बोलती हैं .....
उन दिनों मैं चौथी कक्षा की छात्रा थी .....जब उस 31 साल की महान अदाकारा का निधन हुआ था .....उस वक़्त तक मैंने उनकी कुछ ही फ़िल्में देखी थी....' आखिर क्यों ' 'मंथन ' 'भींगी पलकें 'और 'मिर्च मसाला '......वो भी दूरदर्शन के सौजन्य से .....पर वे मुझ पर अमिट छाप छोड़ चुकी थीं.... इसलिए जब यह मनहूस ख़बर सुनी ....तो सहज विश्वास नहीं हुआ..... बाद में धीरे - धीरे उनकी और भी फिल्में देखी .....और वे झकझोरती रहीं ....अपने दमदार अभिनय से.... 'मंथन 'फिल्म का दुग्ध क्रांति से संबंधित गाना "मेरो गाम काथा पारे ,जहाँ दूध की नदिया बाहे "टीवी पर अक्सर बजता रहा ....और वे हम सबकी नज़रों के सामने रहीं ....
साँवली त्वचा का ऐसा जादू..... बोलती आँखों का ऐसा सम्मोहन ...राष्ट्रीय पुरस्कारों का दोहरा सम्मान ....एक प्रखर नारीवादी और मराठी समाचार-वाचिका से समानांतर और व्यावसायिक सिनेमा के 80 अध्यायों पर अंकित सुनहरे नाम को श्रद्धांजलि .....हाँ ,स्मिता पाटिल !यूं तो लगभग सभी पुरानी अभिनेत्रियाँ मुझे प्रिय रही हैं.... पर आप इन सबसे अलग हैं ...'चरणदास चोर 'की एक छोटी सी भूमिका से आगाज़ कर 'भूमिका 'की दमदार भूमिका आपको राष्ट्रीय पुरस्कार का तमगा दे जाती है ....ऐसी उल्लेखनीय भूमिका 'चक्र ', 'निशांत ','बाज़ार ','मंडी ','आक्रोश ' और 'अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है ' जैसी फिल्मों का शानदार सफर जारी रखती है ..... आप टूटकर तन्हा होती हैं अपने जनम -जनम के साथी से .....इसके बावजूद आपकी इच्छानुसार मृत्यु के बाद आपका मेकअपमैन दुल्हन -सा श्रृंगार करता है...
परन्तु आज तक विश्वास करना मुश्किल होता है ....कि एक संपन्न महिला.... वो भी पर्दे पर और निजी जीवन में भी ....एक सशक्त चर्चित अभिनेत्री..... की मौत ...अपने परिवार को 'वारिस 'देने के बाद प्रसव से उत्पन्न बीमारी से हो सकती है..... हाँ ,एक बोल्ड स्त्री की छोटी -सी कहानी में लिपटी हुई अनोखी ज़िंदगानी.... सुनो सुनो री .......
स्मिता पाटिल
(17 अक्टूबर 1955- 13 दिसंबर 1986 )
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