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ज़िंदा रहेंगी कलियाँ

ज़िंदा रहेंगी कलियाँ --------------------------------------------- अब कलियाँ मुस्कुराती नहीं खुलकर डर है उनकी मुस्कुराहट देखकर आने वाले भौंरे बता देंगे उनका पता दुश्मनों को दुश्मन देख रहे मोबाइल और इंटरनेट की काली छवियां सीख रहे नन्हीं कलियों का भी दमन बनकर कुत्सित दरिंदे  निकलते गलियों में पहले ललचाएंगे-फुसलाएंगे छुपकर फिर तोड़ेंगे-मरोड़ेंगे सरेआम आंसुओं से गीली पंखुड़ियाँ बेज़ान बिखरी होंगी मुरझाई सरेराह मातम मनाएगा हमेशा की तरह  बाग का बूढ़ा माली हाथ पर हाथ धरे रह जाएगा फफक फफक कर रोएगा अपनी किस्मत पर डाल पर बैठी इंतज़ार करती कोयल का गला रुंध जाएगा सियासत सेकेंगी रोटियाँ गर्म तवे पर स्वयंसेवी देवियाँ धरने-प्रदर्शन की फोटो  खिचवाएंगी टूटी हुई कलियाँ ज़िंदा रहेंगी फिर भी बहुत गा लिया शोकगीत अपनी  असंख्य मौतों का लड़ेंगी  अपनी सांसों की ख़ातिर कई 'निर्भयाएं' पहनाएंगी दुश्मन के गले में  मृत्युदंड का हार बस मिल जाए अगर सभी...

कन्या पूजन के बहाने.....यह चुप रहने का समय है

मित्रों,  नवरात्रि एवं दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएं।महाष्टमी के दिन गौरी पूजन हेतु बच्चियों की तलाश शुरू हो गई है.....मेरे मोहल्ले में ....और आपके मोहल्ले में भी...मेरे मोहल्ले में तो तीन -चार बच्चियाँ अभी कम पड़ रही हैं...उम्मीद है कि आपके यहाँ भी संख्या कम पड़ रही होगी. ...अब क्या करेंगे.... हर साल की तरह ....यही न कि आसपास की झुग्गी बस्ती से कन्याओं को बुलाएंगे...चलिए कम से कम ये झुग्गी बस्ती वाले किसी बात में हमसे अच्छे हैं. ....वे भले ही बेटे की चाह में आधा दर्जन बेटियाँ पैदा कर लेंगे. ...लेकिन बेटियों की गर्भ में पहचान कर... मारने की घटना  उनके यहां बहुत कम दिखती है..सीधी सी बात है. ..चोरी-छुपे लिंग परीक्षण और ...भ्रूण की हत्या करने में पैसे भी तो खर्च करने होंगे.                                 अब देखिये न....जैसे जैसे हमारी बेटियों की संख्या कम होती जा रही है. ...वैसे वैसे हम नए तर्क और बहाने भी गढ़ना सीख रहे हैं....पहले यह कहा जाता था कि बेटियों के दहेज के जुगाड़ की चिंता के कारण उन...

यह टूटने का समय न था

यह टूटने का समय न था -------------------------------------------------------- डाल से टूटी हुई पत्ती थी मैं डाल को लेकिन कोई ग़म न था स्पर्श अभी स्निग्ध था और रंग भी हरा - हरा असमय ऐसे टूटकर  बिछड़ना था बिछड़ गई हवाओं ने जब जी चाहा तूफ़ानों का शक्ल अख्तियार किया फ़िज़ाओं में भटकती थपेड़े खाकर पीली हुई डाल की ओर तरसते नेत्रों से देखा पर वहाँ अजनबीपन से भरा गहरा सन्नाटा पसरा था मैंनें खुद को समझाया कि मेरी पहचान बदल गई थी और मैं तो कब की मार दी गई थी  मेरी चीखें कैसे सुन सकते थे वे जिन्होंने बोलने से पहले ही मेरी ज़बान काट ली थी यही तो दुनिया का उसूल है टूटी हुई पत्ती भला  जुड़ती है कभी डाल से ! - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना 09.10.2015

ओह ......ये कामवालियाँ !

ओह...ये कामवालियाँ ! दाई...बाई ...या कहो कामवालियाँ वो देखो आ रहीं हैं सुबह- सुबह अपने हाथों को भांजकर  जोर- जोर से बतियाते अपनी अलग -सी पहचान लिए अपनी कछुए वाली पीठ  पर कई आकाश ढोते हुए । ×     ×    ×     ×    ×    ×    × उन्हें देखते ही मेमसाहबों के चेहरे खिल जाते हैं इत्मीनान है चलो आ तो गईं निपट जाएंगे झाड़ू-पोंछा, बर्तन और अलग से भी कुछ काम मक्खियों की भिनभिनाहट तो होगी रोज़ की तरह ×   ×     ×     ×    ×      ×     × आते ही कामवालियाँ फटाक से घुस जाती हैं ' पवित्र ' रसोईघर में बर्तनों पर छूट गए साबुन के दाग़ से डाँट भी खाती हैं कभी चुप रहती हैं कभी उबल पड़ती  हैं चूल्हे पर चढ़ी चाय के साथ ×   ×     ×     ×    ×      ×     × बरामदे से शुरू कर घर  के आखिरी कमरे तक पोंछा लगाती जाती हैं पर उन घरों के बाथरूम ...

सरकारी स्कूल की लड़कियाँ

सरकारी स्कूल की लड़कियाँ _____________________________ सफेद कमीज़ और गहरे आसमानी स्कर्ट पहने भागी जा रही हैं ठीक दस बजे सरकारी स्कूल की लड़कियाँ उनके जूते ठीक - ठाक हैं लगभग पर मोजे थोड़े गंदे और चुन्नटों के संग थोड़े ढीले-ढाले इस सुबह ही शाम की पीली थकान ओढ़े। कुछ सालों पहले भी नहीं दिखती थीं लड़कियाँ उतनी ' वेल ड्रेस्ड ' बांधनी होती थी सिर पर लाल रिबन से तेल चुपड़े बालों की चोटी फिर भी पास से गुज़रती हुई अंग्रेज़ी नॉवेल की शौक़ीन कान्वेंटी लड़कियाँ नाक-भौं सिकोड़ती चिढ़ा जातीं अनायास सरकारी स्कूल की लड़कियाँ कुछ देर तक अपने कपड़ों में ढूंढती रह जातीं क्रीज अपनी ही बोली से आने लगती देहातीपन की बू उनके कंधे झुक जाते थे कुछ और 'शहजादियाँ' तनी-तनी माॅडलों-सी खिलखिलाती हुई दूर तक नज़र आतीं। अब नहीं जाती हैं मध्यवर्गीय लड़कियाँ सरकारी स्कूलों में पर वे जाती हैं जिनके लिए बड़े सपने देखना अब भी है गुनाह उनके माता- पिता नहीं चुका सकते स्मार्ट ज्ञान की कीमत इसलिए सरकारी स्कूल की लड़कियों के मोजे अब भी हैं मटमैले और थोड़े ढीले-ढाले प...

एक कविता

इस जनम की बिटिया बिटिया सोई है पर न जाने किस दुनिया में खोई है रह-रहकर जब वह मुस्कुराती है  दादी-नानी कहती हैं- 'नींद में उसे हँसाते हैं रामजी' जो भी हो उसकी  मुस्कुराहट दुनिया की सबसे हसीन मुस्कुराहट लगती है  नज़र न लगे किसी की अभी अभी तो वह इस दुनिया में आई है ये बिटिया पहली संतान है इसलिए  आ रहीं हैं तरह-तरह की बधाइयाँ, 'कोई बात नहीं बेटी हुई है तो अगली बार बेटा भी मिल जाएगा' सांत्वना की बारंबार आवृत्ति के साथ यह भी कि लक्ष्मीजी आपके घर आई हैं हर बधाई का स्वागत करना  मज़बूरी है मेरी पर अपने शुभचिंतकों का दिल दुखाए बिना यह कहने से रोक नहीं पाती खुद को बेटा-बेटी  की किलकारियों का फर्क नहीं मालूम मुझे  अपना अंश जैसा भी हो जान से प्यारा लगता है सचमुच जब जब वह मुस्कुराती है नज़र आता है बस एक नन्हा फरिश्ता जिसमें मुझे ज़िन्दगी बार बार झांककर  मेरी ही अगली कड़ी का देती है आमंत्रण याद नही रह पाता तब समाज का इतिहास-भूगोल रटी-रटाई ख्वाहिशें आदमी की भेड़चाल ...

मौन क्यों हैं पापा

मौन क्यों हैं पापा कल ही की तो बात है पापा जब रेडियो पर सुन रहे थे आप 'सेल्फ़ी विद डॉटर्स ' की बात मेरी प्यारी सी मम्मा के साथ मैं भी तो सुन रही थी और सुनकर मीठे सपने देखने लगी थी  कि जब मैं बाहर की दुनिया में आ जाऊंगी आप पहनाएंगे मुझे तितलियों वाला बूटेदार फ्राॅक और मुझे कहते हुए 'स्माइल प्लीज़ माइ डॉटर' एक शानदार सेल्फ़ी खीचेंगे इन्हीं ख़यालों में डूबी मैं इतराने लगी थी अंधेरे से उजाले की ओर टुकुर - टुकुर ताकने लगी थी पता नहीं फिर क्या हुआ कल रात अचानक आप ज़ोर-ज़ोर से से चिल्ला रहे थे और मम्मा रोने लगी थी  सुबह होने तक  होती रही बरसात  उनके ज़ल्दी ज़ल्दी करवटें बदलने से मैं भी जागती रही पूरी रात कल ही की तो बात है पापा मैं सपने बुन रही थी और आज डरने लगी हूँ यह जगह अपना छोटा -सा घर तो नहीं लगता कैंची और चाकू क्यों मम्मा की चूड़ियों के साथ खनखना रहे हैं  आ रही हैं कैसी दवाओं की  ये गंध अरे देखिए न पापा दस्ताने पहने हाथ  मेरे आश्रय की तरफ़ बढ़ रहे हैं तेजी से जहाँ और ...

चींटियाँ

चींटियाँ   पिछले दो-तीन दिनों से चींटियों ने काफ़ी परेशान कर रखा हैं।रोटियों का डब्बा हो या दालों के कंटेनर........सर्वत्र इनकी उपस्थिति।शायद यहाँ पेड़-पौधों के आधिक्य के कारण इनके भिन्न- भिन्न रूपों का दर्शन सुलभ है।जो भी हो, इसी बहाने मुझे याद आई....वर्षों पूर्व लिखी यह कविता.....जो चींटियों (या किन्हीं औरों) के वज़ूद और संघर्ष की तस्वीर रचने की एक छोटी कोशिश है। चींटियाँ वे जब तक संतुष्ट रहीं मरे पड़े कीड़े - मकोड़े खाकर हम इठलाते रहे अपनी बुद्धि पर धीरे - धीरे उनकी नज़रें ललचाईं वे बढ़ने लगीं चीनी के दानों और स्वादिष्ट मिष्ठानों की ओर यह गुस्ताखी हम सहन नहीं कर पाए क्योंकि हमारी धमनियों में बड़ी तेज़ रफ़्तार से दौड़ रहा था चटकदार लाल सामंती लहू हमने काट डाली कुछ की ज़बानें कुछ के सूक्ष्म पांव और कई को ज़िंदा जला डाला बाकी इस तरह डरीं सहमीं कि सदियों तक बेज़बान रहीं। पर आजकल तो गज़ब हो रहा है उन्हें भी मिलने लगी है हम जैसे स्थापित मानवों जैसी बुद्धि उन पर साक्षरता कार्यक्रम शायद असर कर गए हैं इसलिए हो रही हैं राजनीति में भी माहिर उनकी कतारबद्ध से...

सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना की एक कविता

पोर्ट्रेट _ _ _ _ _ _ _ एक धुंधली आकृति रात के अंधियारे में आंखों से निकाल कर फैला रही थी काग़ज़ पर अथाह पीड़ा की स्याही अगली सुबह लोगों ने देखा काग़ज़ किसी ने कहा एक दुखियारी औरत की कविता है किसी ने कहा नहीं, यह दर्द में डूबी एक कहानी है तल्लीन हो कर देखा एक बूढ़ी औरत ने और सबको बताया एक बेबस स्त्री की सुंदर पोर्ट्रेट है जिसकी नम आंखों में प्रतिबिंबित हो रही है एक गर्भस्थ कन्या शिशु अपनी हत्या का दुःस्वप्न देखकर तन-मन से छटपटाते हुए ज़ोर-ज़ोर से चिल्ल्लाते हुए अंधों को जगाते हुए बहरों को सुनाते हुए मूर्खों को समझाते हुए कसाइयों  से औज़ार छीनते हुए पत्थरों में आदमी को ढूंढते हुए !