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यह टूटने का समय न था

यह टूटने का समय न था

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डाल से टूटी हुई पत्ती थी मैं
डाल को लेकिन कोई ग़म न था
स्पर्श अभी स्निग्ध था
और रंग भी हरा - हरा
असमय ऐसे टूटकर
 बिछड़ना था बिछड़ गई

हवाओं ने जब जी चाहा
तूफ़ानों का शक्ल अख्तियार किया
फ़िज़ाओं में भटकती
थपेड़े खाकर पीली हुई
डाल की ओर तरसते नेत्रों से देखा
पर वहाँ अजनबीपन से भरा
गहरा सन्नाटा पसरा था

मैंनें खुद को समझाया कि
मेरी पहचान बदल गई थी
और मैं तो कब की मार दी गई थी 
मेरी चीखें कैसे सुन सकते थे वे
जिन्होंने बोलने से पहले ही
मेरी ज़बान काट ली थी
यही तो दुनिया का उसूल है
टूटी हुई पत्ती भला 
जुड़ती है कभी डाल से !
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-सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना
09.10.2015

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