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ज़िंदा रहेंगी कलियाँ


ज़िंदा रहेंगी कलियाँ
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अब कलियाँ मुस्कुराती नहीं खुलकर

डर है

उनकी मुस्कुराहट देखकर

आने वाले भौंरे

बता देंगे उनका पता

दुश्मनों को


दुश्मन देख रहे

मोबाइल और इंटरनेट की काली छवियां

सीख रहे नन्हीं कलियों का भी दमन

बनकर कुत्सित दरिंदे 

निकलते गलियों में

पहले ललचाएंगे-फुसलाएंगे छुपकर

फिर तोड़ेंगे-मरोड़ेंगे सरेआम

आंसुओं से गीली पंखुड़ियाँ बेज़ान

बिखरी होंगी मुरझाई सरेराह


मातम मनाएगा

हमेशा की तरह 

बाग का बूढ़ा माली

हाथ पर हाथ धरे रह जाएगा

फफक फफक कर रोएगा

अपनी किस्मत पर

डाल पर बैठी इंतज़ार करती

कोयल का गला रुंध जाएगा

सियासत सेकेंगी रोटियाँ गर्म तवे पर

स्वयंसेवी देवियाँ धरने-प्रदर्शन की फोटो  खिचवाएंगी

टूटी हुई कलियाँ ज़िंदा रहेंगी फिर भी

बहुत गा लिया शोकगीत अपनी  असंख्य मौतों का

लड़ेंगी  अपनी सांसों की ख़ातिर

कई 'निर्भयाएं'

पहनाएंगी दुश्मन के गले में 

मृत्युदंड का हार

बस मिल जाए अगर सभी बागों का साथ

समय क्रांति का है

तो क्रांति करो न

पर पहले थोड़ी सी सोच भी बदलो

हाँ,  गंगा मैली नहीं होती

कलियाँ खिल सकती हैं फिर से

उन्हें गंगा की तरह बहने दो

ढूंढ लेंगी राहें अपनी लहरें

बस निर्मल छांव में पलने दो
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सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना
16 दिसंबर, 2015



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