विवाह बहुत ही पवित्र संस्कार है हमारे भारतीय समाज में...पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले में बीते दिनों एक विवाह समारोह था।बारात आई ,द्वारपूजा हुई।अब सब जयमाल का इंतज़ार कर रहे थे ।पर यह क्या ,दुल्हन जयमाल स्टेज की तरफ न आकर कहीं और चली गई ।कुछ देर में ही जो पता चला वो नया था ।हाँ,दुल्हन रानी पौधारोपण कर रही थी और इसमें उसका साथ दे रहे थे दुल्हा सत्यप्रकाश ।आम का पौधा लगने के बाद लड़की के माता- पिता ने भी पौधारोपण किया ।उसके बाद ही जयमाल की विधि संपन्न हुई ।यानी पवित्र विवाह संस्कार में एक और पवित्र विधि का जुड़ना अनोखा था पर बहुत सराहनीय भी ।शादी ब्याह सृष्टि को निरंतर रखने के लिए होते हैं और पर्यावरण संरक्षण के बिना सृष्टि का अस्तित्व ही संकटपूर्ण हो जाएगा ।
इससे पहले भी वृक्षारोपण के संदेश देते कई आयोजन समय समय पर सुनने को मिलते रहे हैं ।संतान के जन्म और जन्मदिवस पर भी कई गाँवों में पौधों को लगाने की प्रथा रही है।ऐसे आयोजनों का खूब प्रचार-प्रसार हो ताकि लोग अपने पर्यावरण के प्रति सचेत रहें ।
जहाँ तक महिलाओं की बात है तो हमारे देश की महिलाएं पर्यावरण संरक्षण में पुरुषों से पीछे नहीं हैं ।कई जगह तो बढ़कर ही हैं ।अतीत में अठारहवीं शताब्दी में राजस्थान की अमृतादेवी समेत विश्नोई समाज की लगभग चार सौ महिलाओं का बलिदान तो आश्चर्यजनक है।फिर चिपको आंदोलन से भला कौन पर्यावरण- प्रेमी वाकिफ न होगा !आज भी उत्तरकाशी की पहाड़ी महिलाएं अपने वृक्ष संसाधन की कीमत जानती हैं और 'रक्षासूत्र आंदोलन ' के तहत कई समूह बनाकर इनके संरक्षण के लिए दृढ़संकल्प हैं ।राजस्थान का 'सेवामंडल' भी सक्रिय है और इसके तहत भील महिलाएं वीरान और उजड़ क्षेत्रों में पानी और हरियाली लाने के लिए सेवारत हैं।मेधा पाटेकर, वंदना शिवा,सुनीता नारायण ,अरूंधती राय ,गौरा देवी जैसे प्रसिद्ध नामों के अलावे पूरे भारत भर में लाखों गुमनाम पर्यावरण की महिला प्रहरी काम कर रही हैं।उनके जूनुन और हौसले को लाखों सलाम !
सच कहें तो पर्यावरण संरक्षण के प्रति वही जागरूक होगा, जिसमें संवेदनशीलता होगी ।महिलाएं तो ज़्यादा संवेदनशील मानी ही जाती हैं।साथ ही ,गाँवों में पानी और इंधन जुटाना महिलाओं के जिम्मे होता है ।अतः इनके संरक्षण की चिंता इन्हें होना स्वाभाविक है ।शायद यही कारण है कि महिलाएं प्रकृति के अधिक करीब हैं और उसे सहेजे रखने की फ़िक्र करती हैं ।हम शहरी महिलाएं भी कहाँ अछूती हैं पर्यावरण संकट से।छोटे-बड़े शहरों में बहुत सुबह उठकर पानी को समय पर संचित करने की जिम्मेदारी हमारी ही होती है ।बिजली -गैस की चिंता भी हमारी है ।बाहर निकलो तो ज़हरीले धुओं से सामना।तपती हुई गर्मी में उबलकर तरह तरह की बीमारियों का सामना ।ऐसे में हम शहरी औरतों की भी जिम्मेदारी बनती है न ! कुछ लोग कहेंगे कि हमारे पास ज़मीन कहाँ है ।बात सिर्फ ज़मीन की नहीं है ।पर्यावरण को बचाने के कई तरीके हैं ।बस छोटी छोटी पहल ,थोड़ी सी जागरूकता की ज़रूरत है ।बिजली- पानी बचाने ,पाॅलीथीन के इस्तेमाल से परहेज,आर ओ फिल्टर से निकले फालतू पानी का सदुपयोग जैसे छोटे छोटे कदम भी कम नहीं हैं । एसी और कूलर का कम से कम इस्तेमाल हो ।पेड़ों की छंटाई कर उनकी जान बचाई जा सके ,वहाँ भरसक प्रयास हो ।बड़े गमलों में झाड़ीनुमा पौधों का रोपण कर भी हरियाली को पास बुलाया जा सकता है ।अधिक दूरी की यात्रा के लिए सार्वजनिक परिवहन केवल पर्यावरण के दृष्टिकोण से लाभदायक नहीं है, बल्कि यह सुरक्षित भी होता है।सबसे बड़ी बात है कि हम महिलाएं बच्चों में ऐसे पर्यावरण हितैषी संस्कार भर सकती हैं, ताकि आनेवाले समय में उन्हें पर्यावरण संकट से बचाया जा सके ।
पर्यावरण दिवस पर सभी अपने पर्यावरण के बारे में वैसा ही सोचें ,जैसे अपने घर के बारे में ।बस यही शुभकामना !
इससे पहले भी वृक्षारोपण के संदेश देते कई आयोजन समय समय पर सुनने को मिलते रहे हैं ।संतान के जन्म और जन्मदिवस पर भी कई गाँवों में पौधों को लगाने की प्रथा रही है।ऐसे आयोजनों का खूब प्रचार-प्रसार हो ताकि लोग अपने पर्यावरण के प्रति सचेत रहें ।
जहाँ तक महिलाओं की बात है तो हमारे देश की महिलाएं पर्यावरण संरक्षण में पुरुषों से पीछे नहीं हैं ।कई जगह तो बढ़कर ही हैं ।अतीत में अठारहवीं शताब्दी में राजस्थान की अमृतादेवी समेत विश्नोई समाज की लगभग चार सौ महिलाओं का बलिदान तो आश्चर्यजनक है।फिर चिपको आंदोलन से भला कौन पर्यावरण- प्रेमी वाकिफ न होगा !आज भी उत्तरकाशी की पहाड़ी महिलाएं अपने वृक्ष संसाधन की कीमत जानती हैं और 'रक्षासूत्र आंदोलन ' के तहत कई समूह बनाकर इनके संरक्षण के लिए दृढ़संकल्प हैं ।राजस्थान का 'सेवामंडल' भी सक्रिय है और इसके तहत भील महिलाएं वीरान और उजड़ क्षेत्रों में पानी और हरियाली लाने के लिए सेवारत हैं।मेधा पाटेकर, वंदना शिवा,सुनीता नारायण ,अरूंधती राय ,गौरा देवी जैसे प्रसिद्ध नामों के अलावे पूरे भारत भर में लाखों गुमनाम पर्यावरण की महिला प्रहरी काम कर रही हैं।उनके जूनुन और हौसले को लाखों सलाम !
सच कहें तो पर्यावरण संरक्षण के प्रति वही जागरूक होगा, जिसमें संवेदनशीलता होगी ।महिलाएं तो ज़्यादा संवेदनशील मानी ही जाती हैं।साथ ही ,गाँवों में पानी और इंधन जुटाना महिलाओं के जिम्मे होता है ।अतः इनके संरक्षण की चिंता इन्हें होना स्वाभाविक है ।शायद यही कारण है कि महिलाएं प्रकृति के अधिक करीब हैं और उसे सहेजे रखने की फ़िक्र करती हैं ।हम शहरी महिलाएं भी कहाँ अछूती हैं पर्यावरण संकट से।छोटे-बड़े शहरों में बहुत सुबह उठकर पानी को समय पर संचित करने की जिम्मेदारी हमारी ही होती है ।बिजली -गैस की चिंता भी हमारी है ।बाहर निकलो तो ज़हरीले धुओं से सामना।तपती हुई गर्मी में उबलकर तरह तरह की बीमारियों का सामना ।ऐसे में हम शहरी औरतों की भी जिम्मेदारी बनती है न ! कुछ लोग कहेंगे कि हमारे पास ज़मीन कहाँ है ।बात सिर्फ ज़मीन की नहीं है ।पर्यावरण को बचाने के कई तरीके हैं ।बस छोटी छोटी पहल ,थोड़ी सी जागरूकता की ज़रूरत है ।बिजली- पानी बचाने ,पाॅलीथीन के इस्तेमाल से परहेज,आर ओ फिल्टर से निकले फालतू पानी का सदुपयोग जैसे छोटे छोटे कदम भी कम नहीं हैं । एसी और कूलर का कम से कम इस्तेमाल हो ।पेड़ों की छंटाई कर उनकी जान बचाई जा सके ,वहाँ भरसक प्रयास हो ।बड़े गमलों में झाड़ीनुमा पौधों का रोपण कर भी हरियाली को पास बुलाया जा सकता है ।अधिक दूरी की यात्रा के लिए सार्वजनिक परिवहन केवल पर्यावरण के दृष्टिकोण से लाभदायक नहीं है, बल्कि यह सुरक्षित भी होता है।सबसे बड़ी बात है कि हम महिलाएं बच्चों में ऐसे पर्यावरण हितैषी संस्कार भर सकती हैं, ताकि आनेवाले समय में उन्हें पर्यावरण संकट से बचाया जा सके ।
पर्यावरण दिवस पर सभी अपने पर्यावरण के बारे में वैसा ही सोचें ,जैसे अपने घर के बारे में ।बस यही शुभकामना !
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