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विपथगा

विपथगा

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बहुत -सी आवाज़ें  आ रही हैं

बहुत भीड़ नज़र आ रही है

गर्दन घुमाकर  देखती हूँ उत्सुकतावश

सदियों से चल रही पंक्ति कहाँ तक पहुँची है

पर अफ़सोस मुझे कोई फ़र्क़ नज़र नहीं आ रहा है

मनु नामक मूर्ति मुस्कुरा रही है

उसकी संहिता का अनुपालन  बखूबी कर रही है वह भीड़

तलाश रही है आज भी सुपर मार्केट में

रोटी पकाने के लिए तवा कोई गोल

माथे पर चमकती  हुई  बिंदिया अनमोल

होठों की महंगी सुर्ख लाली

साथ में नई क्रीम गोरा बनाने वाली


भीड़ बनी गतिहीन

पर मुझे चाहिए गति.....और गति

इसलिए भीड़ से विलगित पाँवों को

मानकर गुरु 

होगी साधना

कोई साथ नहीं देगा

पर निश्चय है यही मेरा

नहीं बनना भीड़ का हिस्सा

तवा के अलावा 

रखना है पूरे ब्रह्माण्ड का हिसाब


सामने है रात का स्याह अंधेरा

छिप नहीं पा रही है इसमें

नियति भीड़ की

कैसे न करूँ भीड़ से अलग चलने की ज़िद

जब मेरी मंज़िल बस दूसरी चाहरदीवारी न हो

तब उन्होंने चाहरदीवारियाँ पशुओं के लिए बनाई थीं

अब तो पशु भी

'सफारी पार्क 'में

पसंद करते हैं घूमना-फिरना

पर इस भीड़ को आज भी पसंद है

बड़ी चाहरदीवारियाँ

हाँ, आवाज़ें बढ़ती जा रही हैं

मार्केट में

आज सप्ताह का सबसे सस्ता दिन है शायद. ...........
         
             -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना









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