बड़े घर की लड़की अब वह भी खेल सकती है भाई के सुंदर खिलौनों से अब वह भी पढ़ सकती है भाई के संग महंगे स्कूल में अब वह भी खुलकर हँस सकती है लड़कों की तरह वह देखने जा सकती है दोस्तों के संग सिनेमा वह जा सकती है अब काॅलेज के पिकनिक टुअर पर वह रह सकती है दूर किसी महानगरीय हाॅस्टल में वह धड़ल्ले इस्तेमाल कर सकती है फेसबुक, ह्वाट्सएप और ट्विटर वह मस्ती में गा और नाच सकती है फैमिली पार्टी में वह पहन सकती है स्कर्ट ,जीन्स और टाॅप वह माँ - बाप से दोस्तों की तरह कर सकती है बातें वह देख सकती है अनंत आसमान में उड़ने के ख़्वाब इतनी सारी आज़ादियाँ तो हैं बड़े घर की लड़की को बस जीवनसाथी चुनने का अधिकार तो रहने दो इज़्ज़त-प्रतिष्ठा धूमिल हो जाएगी ऊँचे खानदान की वैसे सब जानते हैं कि साँस लेने की तरह ही लिखा है स्वेच्छा से विवाह का अधिकार भी मानवाधिकार के सबसे बड़े दस्तावेज में ! ---------------------------------------------------
विदा होती बेटियाँ रोती हैं सब बेटियाँ जब लाँघ कर देहरी मायके की एक नई दुनिया की ओर कदम रखती हैं हौले से सब की सब नहीं होती हैं सबसे अमीर पिता की संतान सबके घर में नहीं होती है कोई कामधेनु गाय सबके घर नहीं होते आलीशान राजमहल सबके पास नहीं आता सफेद घोड़े पर सवार सुंदर राजकुमार फिर भी वे तैर लेती हैं कभी - कभी ख़्वाबों के स्वीमिंग पुल में गा लेती हैं उम्मीदों के गीत सुंदर गार्डेन की धूप - छाँव में सिनेमा के काल्पनिक गीतों को याद कर रिश्ता तय होने के बाद से ही कभी हँसती हैं कभी रोती हैं अचानक कभी भविष्य को ताकती हैं कभी अतीत को झाँकती हैं रात्रि के एकांत में प्रायः उदास हो जाती हैं बेटियाँ - कि न जाने कैसे चुकेगा पिता का क़र्ज़ नया कि कौन रखेगा दिन- ब -दिन पृथ्वी की तरह बूढ़ाती अपने वदन पर नई बीमारियों की लिस्ट जोड़ रही स्नेहिल बरगद की छाँव-सी माँ का ख़याल ...