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प्रेम अभी क़त्लखाने में क़ैद निहत्था अहसास है

प्रेम अभी क़त्लखाने में क़ैद निहत्था अहसास है


कि खिलना था सुंदर फूलों को जहाँ
वह ठूंठ बनकर कुरूप खड़ा है
तितलियाँ इस भयानक हादसे की शिकार हैं
पत्थर मार रहे हैं बच्चे उनके पागलपन पर
कोई रूदाली गा रहा है रूक रूक कर
कोयलिया का भी गला रुंध गया है शायद
तोड़े जा रहे हैं प्रेम के मंदिर डायनामाइट से
घृणा को मातृभूमि से प्रेम का पर्यायवाची शब्द गढ़ा जा चुका है
नैतिकता का मुखौटा चमक रहा है
अनैतिकता के हर रावणी चेहरे पर
लाल रंग नफ़रत की चाशनी में गाढ़ा होकर काला पड़ गया है
बिल्कुल टूटे सूखे गुलाब की बेजान पंखुड़ियों की तरह

ऐसे में मत कहो कि लिखो एक प्रेम कविता
हमारे हाथों में तो नुकीले खंजर छुपे हैं
कलम की शक्ल में ये प्रतिशोध के लोकप्रिय   हथियार हैं
हमें डर है कि लिखना चाहें एक अदद प्रेम कविता
कोई वीभत्स क़त्ल न हो जाए कठपुतली बनी उंगलियों से
कि हर क़दम हमारा सीसीटीवी कैमरे की गहन निगरानी में है
हँसना भी असंभव है प्रेमवाली नैसर्गिक हँसी
और नौटंकी सबके वश की बात नहीं है

बहुत शिद्दत से चाहते हैं सब परिंदे प्रेम करना
कि वसंतोत्सव मना रहा है बाज़ार चीखकर
फिर भी वे बेबस हैं आँखों में उतरे हुए ख़ून के साथ
बस फड़फड़ाएं जा सकते हैं पिंजड़े में कोमल सपने
प्रेम अभी क़त्लखाने में क़ैद होकर निहत्था
कर रहा है अपनी बारी का इंतज़ार
हो सकता है कि कल के अख़बार के मुख्य पृष्ठ पर छपकर
एक और युगल नाम लाल धब्बों की माला पहने
पा रहा हो हमारी नम आँखों की सहानुभूति

और अचानक से

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बेपरवाह !
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-सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना
10/02/18

 *फोटो साभार: फेसबुक की एक पोस्ट

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