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सितंबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

तुम्हें लज्जा कभी नहीं आती

तुम्हें लज्जा कभी नहीं आती  ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ क्या नाम दूँ  तुम्हें  दुर्योधन,दुःशासन या  कलियुग का कुलनाशक  नाम देने से भी क्या फ़र्क पड़ता है  पत्थरों  पर कहाँ असर होता है    तुम्हें तो लज्जा कभी नहीं आती  देवी की आराधना तुमने भी की होगी  क्या माँगा होगा गिड़गिड़ाकर उसके चरणों में  धन -बल या फिर कोई छल  देखी तो कभी होगी अलबम में  अपनी माँ की जवानी की तस्वीर  क्या तुम्हें वह सूरत उस वक़्त नज़र नहीं आती  जब अपने आसान 'शिकार'  पर हमला करते हुए  लज्जा कभी नहीं आती   तुम्हारी भी कोई बहन कहीं  बंद कमरे की घुटन तजकर  हर शाम की सुहानी हवा में  थोड़ी देर  आज़ाद चिड़िया बन जाना चाहती होगी  क्या तुमने कतर दिए हैं उसके सफेद पंख या बाँध दी हैं बेड़ियाँ उसके नाज़ुक पाँवों में तुम्हें अपनी स्वच्छंदता को झूठी मर्दानगी बताते हुए  लज्जा कभी नहीं आती  सुना है कि खत्म हो रहे हैं जंगल  और खत्म हो रहे हैं...

चमकती रहे हिन्दी

हिन्दी दिवस की बहुत बधाई  सभी पाठक मित्रों को ....हिन्दीभाषी होने के कारण ही शायद मैं यहाँ हूँ और इतने व्यापक क्षेत्र तक अपनी बात पहुँचा पा रही हूँ। बहुत अच्छा लगता है अपनी बात कहने में अपनी मातृभाषा में .... यूँ तो मैं एक भोजपुरीभाषी क्षेत्र से संबंधित हूँ ....इसलिए हिन्दी पर इसका असर बिल्कुल स्वाभाविक है ...क्षेत्रीय बोलियाँ और भाषाएं हमारी हिन्दी के लिए ख़तरा नहीं जैसा कि आजकल कई विद्वान इस विवाद पर कमर कसे हुए हैं ....इससे हिन्दी और भी समृद्ध होती है और यह विविधता इसे बहुत सुंदर बनाती है ....शायद सचमुच की राष्ट्रभाषा की सारी ख़ूबसूरतियों को समेटे हुए ....  कुछ लोग हिन्दी को लेकर अधिक ही चिंतित हो जाते हैं .... पर अतिशुद्धतावाद का यह आग्रह ही इसकी नैया को डूबो भी सकता है क्योंकि यह अभी भी मंझधार में खड़ी है ....और बहुत दूर किनारे हैं ...कुछ लचीला रूख तो हो  ....कि सब इसकी मिठास को पहचान सकें न कि इसे अड़ियल खड़ूस मास्टरनी के रूप में दूर से ही देखकर भाग खड़े हों . कुछ लोग आज के दिन सवाल उठाते हैं कि अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने वाले अभिभा...

कछुए के पाँव पे

कछुए के पाँव पे  सुना है  कोई मुझे जानता नहीं  कोई पहचानता नहीं  जैसे आ गई हूँ  अपने कुनबे से बिछड़कर  एक बिल्कुल नए इलाक़े में  तो किसने कहा था मुझसे  ले लो अल्पविराम  जहाँ छोटे -से अंतराल में  बदल जाती है पूरी दुनिया  कुचल देते हैं बेरहमी से  रेस के घोड़े  तो क्या  मैं नहीं तनिक शर्मिंदा हूँ  अभी भी मैं ज़िंदा हूँ  रेस के घोड़ों के बीच  कछुए के पाँव पे चलते हुए  सूरज के साथ टहलते हुए  ! सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना  *तस्वीर गूगल से साभार 

गर्व से कहो हम इंसान हैं ....काश !

गर्व से कहो हम इंसान हैं ....काश ! ********************* मैं ढूंढ रही थी  इस आभासी दुनिया में  इंसानियत का एक समूह  जिसके चेहरे पर न चमकता हो किसी कायस्थ, ब्राह्मण, राजपूत,बनिए  या दलित का  अति गर्वित - सा भाल  जिसके हुँकारित हाथों में नहीं हो चटक भगवा ध्वज या जिसकी अकड़ी हुई मीनार पर  नहीं लहरा रहा हो झूमकर  हरियाला मज़हबी झंडा  मेरी उँगलियाँ थककर  सो गईं गूगल पर सर्च करते करते  बीते कई दिनों से सोच रही हूँ मैं ही पागल या निरा नादान हूँ अब तो सांझा चूल्हों के किस्से पुराने हो गए लोग तब से अब तक कितने ही सयाने हो गए  नए नोटों पर मंगलयान इतराता हो तो क्या  हमारे गर्वित होने के सब बहाने वही घिसे -पिटे अफ़साने रह गए  क्या करें  उन्हें गर्व होता है उधर  और इधर लज़्ज़ा शरमा कर  अंधेरे घर की सबसे भीतरी कोठरी में  मोटे पर्दे के पीछे  सोने का स्वांग रचाती  है  सिसक सिसक कर हर रात रोती जाती है  लंबी -सी घूँघट के नीचे...