वर्जित नहीं हैं हमारी आत्मा के मंदिर
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अपने मंदिरों व मस्जिदों को रहने दो
हम तो बाक़ी सारा जहान लेंगे
जो शुद्धता का भरते हैं दंभ
उन्हें ही दिखावटी प्रार्थना और अज़ान दे दो
हमीं ने जीवित रखा सृष्टि का चक्र
फिर भी लिखा अपने विधानों में
तुमने उटपटांग बहुतेरे दंड
हमीं देवी थी, तुम्हारे शुद्ध हाथों से पूजी गईं थी
लहू के फूल से इतना घबड़ाते हो
'गौरी ' से अचानक अपराधिनी बना देते हो
तभी तो स्कूल के एकांत में जाकर
सहेलियों से पूछना पड़ता है छुपकर - फुसफुसा कर
"ज़रा देख पीछे, स्कर्ट तो ठीक-ठाक है"
उनकी स्वीकृति के इशारे पर
मानों एक क़िला फ़तह हो जाता है
पर घर में अपनों की निगाहों में
अछूत बना तन
बार-बार यक्षप्रश्नों से टकराता है
क्या धरती पर भी कभी कोई पहरा लगा जाता है
दस - ग्यारह का अबोध मन
समझ नहीं पाता उन वर्जनाओं का मतलब
रसोई की चौखट पर लगी
'नो एंट्री' की अदृश्य चेतावनी
अलग बर्तनों ...अलग बिस्तरों की दर्दनाक पहेली
दैहिक पीड़ा से मिलकर
अक्सर बेढंगा जवाब पाती हैं
गुमसुम सी आँखें अकेले में
कितनी पावन गंगा बहा जाती हैं
पर देखो न .....ओ शुद्धतावादियों
जब दो रोटी के जुगाड़ में
ज़िन्दगी शहर आकर चुल्हा-चौका बसाती है
तुम्हारे सारे नियम
तिजोरियों में बंद हो जाते हैं अपनेआप
महीने के तीसों दिन-
महीने के तीसों दिन-
हमीं रसोई में आग जलाती हैं
हमारी 'आग' तब भी बुझ नहीं पाती है
बर्तनों की चमक भी फीकी नहीं होती
मर्तबान में पड़े अचार का मुख डर से हमारे
सफेद नहीं पड़ जाता है
चटाइयाँ कोने में पड़ी
जाड़े की धूप या गर्मी की छांव का
इंतज़ार करते-करते मायूस हो जाती हैं
क्या करें, रोज़ के अपने बिस्तर पर ही
ठीक-ठाक नींद आ पाती है
सुबह उठकर नहा- धोकर
ऑफिस या काॅलेज भी तो जाना होता है
और हाँ ,फूलों को प्यार जताने पर
पौधे नहीं होते नाराज़
ज़िंदा रहते हैं अगली सुबह फिर मिलने की ख़ातिर
माफ़ करना ऐ ठेकेदारों
हमने छोड़ दी हैं पुरानी लकीरें
हमने सीख लिया है बनाना अपना घर
और अपनी तरह जीना
क्योंकि हम नहीं द्रौपदी - सी
रानियाँ-महारानियाँ
हमें चलना है हर रोज़
क्योंकि चलता है सूरज रोज़
कभी मद्धिम
कभी तेज
और कभी बहुत तेज चमक के साथ
अब वर्जनाओं से परे
बहुत पवित्र हैं
हमारी
आत्मा के मंदिर
यानी देह
जो हमारी है. ......................
-सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना
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