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कविता की ज़मीन

"विश्व कविता दिवस " की हार्दिक शुभकामनाएं सभी मित्रों को .....

तब आठवीं कक्षा की छात्रा थी .. अभी उस स्कूल में नई नई थी मैं ...अचानक एक दिन घोषणा हुई कि स्कूल में कविता लिखने की प्रतियोगिता है ......पता नहीं क्यों इस घोषणा ने मन बांध लिया ....शायद घर में पिता को लिखते देखते आई थी .....प्रशासनिक सेवा में होने के बावजूद पिताजी की साहित्यिक अभिरुचि थी और स्थानीय पत्र - पत्रिकाओं में छपते भी रहते थे .....जब से मैंने होश संभाला था ,घर में खुद को साहित्यिक पत्रिकाओं के बीच घिरा पाया ....धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान ,कादंबिनी ,नवनीत ,सारिका,हंस जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं की नई- पुरानी प्रतियों के अलावा दिनमान और रविवार के बहुत पुराने अंकों के पन्ने पलटते हुए पता ही न चला कि कब मैं खुद शब्दों की चितेरी बनने की नींव रख चुकी थी......
हाँ ,तो स्कूल की घोषणा मेरे  लिए एक नया रास्ता  गढ़ रही थी हालांकि इसकी कोई मंजिल नहीं थी  .....इससे पहले सिर्फ एक बार कविता लिखने की बचकाना कोशिश की थी ...संयोग से उस दिन एक खाली पीरियड भी हाथ आ गया ....बस फिर क्या ....ताना -बाना शुरू  .....क्लास में बैठे-  बैठे
कुछ ड्राफ्टिंग शुरू .....विषय भी क्या चुना.....दहेज - प्रथा ....घर परिवार में बहुत सुनती आई थी इसके बारे में  ...खासकर बिहार के समाज की यह बड़ी बीमारी थी .....अगले दिन क्लास टीचर के पास  कविता को सफेद पन्ने पर लिखकर जमा कर दिया ....मन में एक हिचक के साथ कि पता नहीं यह शामिल होगी या नहीं ....जब शामिल हुई तो एक गुदगुदी सी फैल गई ....और कुछ दिनों बाद जब रिजल्ट आया तो पैर ज़मीन पर न थे .......मेरी कविता पूरे स्कूल में फर्स्ट आई थी ....कुछ ही दिनों बाद स्कूल में एक कार्यक्रम का आयोजन हुआ और मुझे अपनी रचना माईक पर पढ़नी पड़ी .....फिर प्रसिद्ध कविवर स्व. रामदयाल पांडेय जी के हाथों पुरस्कृत हुई ......
इसके बाद कविता मेरी आदत बन गई ....तन्हाई के क्षणों में वह अक्सर मेरे साथ होती ....काग़ज़ और कलम की शागीर्दगी में ....पतले 'पंछी' नोबटुक से लेकर पिताजी से मिली डायरी पर अनगढ़ कविताएं गढ़ती जा रही थीं .....यह सिलसिला ग्रेजुएशन तक चला ..... खुद को जाँचने के लिए कुछ पुरानी कविताएं 'कादंबिनी ' में भेजी और सफल हुई ....कविताओं पर प्रकाशन की मुहर लग गई ...

   करियर बनाने की आपाधापी में कविताओं का जो साथ छूटा वह गृहस्थी जमाने के दौरान भी कायम रहा (हालांकि छिटपुट लेखन  जारी था )...सच कहूँ तो जब फेसबुक ज्वाइन किया , तब फिर इनकी सुध आई ..
.कुछ लेखकों - कवियों से जुड़ने पर आभास हुआ कि मेरे समकालीन रहे लोग साहित्य की दुनिया में बहुत आगे जा चुके हैं ....और मेरी दुनिया पंद्रह साल पीछे छूट गई थी ....

पंद्रह साल .....लगभग पंद्रह सालों का फासला कम नहीं होता ....पूरी दुनिया बदल जाती है .....इस फासले को पाटने में जहाँ दूसरों को पढ़ना कारगर रहा ..वहीं प्रकृति के सान्निध्य ने फिर से फोटोग्राफी और कविता के क़रीब ला दिया ....जो भी हो सोशल मीडिया से जुड़ाव ने मुझे साहित्य से एक बार पुनः जोड़ दिया ....कविता के अलावा कहानी की बुनावट भी सीख रही हूँ ...तीन - चार कहानियाँ पूरी हो चुकी हैं .....चाहे जो विधा हो ..यह ध्यान रहता है कि साहित्य बस श्रृंगार की वस्तु न रहे ....सामाजिक बदलाव का माध्यम बने .....यह सामाजिक बदलाव मेरे साहित्य की ज़मीन भी हमेशा बनी रहे .....यही आकांक्षा है !

-सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना
21/3/2018

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