विदा होती बेटियाँ रोती हैं सब बेटियाँ जब लाँघ कर देहरी मायके की एक नई दुनिया की ओर कदम रखती हैं हौले से सब की सब नहीं होती हैं सबसे अमीर पिता की संतान सबके घर में नहीं होती है कोई कामधेनु गाय सबके घर नहीं होते आलीशान राजमहल सबके पास नहीं आता सफेद घोड़े पर सवार सुंदर राजकुमार फिर भी वे तैर लेती हैं कभी - कभी ख़्वाबों के स्वीमिंग पुल में गा लेती हैं उम्मीदों के गीत सुंदर गार्डेन की धूप - छाँव में सिनेमा के काल्पनिक गीतों को याद कर रिश्ता तय होने के बाद से ही कभी हँसती हैं कभी रोती हैं अचानक कभी भविष्य को ताकती हैं कभी अतीत को झाँकती हैं रात्रि के एकांत में प्रायः उदास हो जाती हैं बेटियाँ - कि न जाने कैसे चुकेगा पिता का क़र्ज़ नया कि कौन रखेगा दिन- ब -दिन पृथ्वी की तरह बूढ़ाती अपने वदन पर नई बीमारियों की लिस्ट जोड़ रही स्नेहिल बरगद की छाँव-सी माँ का ख़याल ...