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दिसंबर, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

विदा होती बेटियाँ

विदा होती बेटियाँ  रोती हैं सब बेटियाँ  जब लाँघ कर देहरी मायके की   एक नई दुनिया की ओर  कदम रखती हैं हौले से  सब की सब नहीं होती हैं  सबसे अमीर पिता की संतान  सबके घर में नहीं होती है  कोई कामधेनु गाय  सबके घर नहीं होते  आलीशान राजमहल  सबके पास नहीं आता  सफेद घोड़े पर सवार सुंदर राजकुमार  फिर भी वे तैर लेती हैं कभी - कभी  ख़्वाबों के स्वीमिंग पुल में  गा लेती हैं उम्मीदों के गीत  सुंदर गार्डेन की धूप - छाँव में  सिनेमा के काल्पनिक गीतों को याद कर  रिश्ता तय होने के बाद से ही  कभी हँसती हैं  कभी रोती हैं अचानक  कभी भविष्य को ताकती हैं  कभी अतीत को झाँकती हैं  रात्रि के एकांत में प्रायः उदास हो जाती हैं बेटियाँ - कि न जाने कैसे चुकेगा पिता का क़र्ज़ नया कि कौन रखेगा  दिन- ब -दिन पृथ्वी की तरह बूढ़ाती अपने वदन पर   नई बीमारियों की लिस्ट जोड़ रही  स्नेहिल बरगद की छाँव-सी माँ का ख़याल  ...