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जून, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

चिड़िया गुम मत होना

चिड़िया गुम मत होना  *********************** हर मकान में एक खिड़की हो कम - से -कम खिड़की में खुला आसमान हो आसमान को कुछ ढँकता हुआ कोई बूढ़ा वृक्ष हो वृक्ष की  झूलती  मज़बूत डालियों पर उड़ने को तैयार कोई छोटी चिड़िया हो उसे एकटक निहारती खिड़की के अंदर एक और चिड़िया हो जिसके पंख निकले रहे हों अभी - अभी और सीख रही हो  खट्टी -मीठी ज़िन्दगी का नमकीन ककहरा आँखों में तैर रहे हों कुछ सोंधे सपने वह जलपरी की हसीन वेशभूषा में भाग रही हो मोतियों की पुरानी खोज़ में और होठ गा रहे हों धीमे धीमे 'हम होंगे क़ामयाब एक दिन ' अभी उसका गीत ख़त्म नहीं हुआ हो तभी अचानक से झन्नाटेदार आवाज़ आए कोई 'अरे कहाँ मर गई ' और वह चल पड़ी हो उलटे पाँव इकलौते भाई के लिए हलवा बनाने जो अभी - अभी आया हो मोहल्ले का क्रिकेट खेलकर फिर भी  रसोईघर से आ रही हो कलछी के संग अधूरे उड़ान -  गीत  का अगला अंतरा वह जानती है कि वृक्ष पर चिड़िया कल फिर आएगी फिर भी मनुहार करती है चिड़िया गुम मत होना तुम्हारे नाजुक पंखों पर  मेरी मज़बूत कहानी लिखी है !    ...

ये वायदे सिन्दूरी हैं

ये  वायदे सिन्दूरी हैं ***************** पता नहीं आसमान से बिखरकर मेरे माथे पर सज आया या मेरे माथे से छिटककर आसमान को सँवार गया पर कोई सिन्दूरी शाम यूं निखर आई किसी नई नवेली दुल्हन के चेहरे पर ज्यों हल्दी की बरकरार हो चमक आँसुओं की बारिश से कई बार मायके की चुहलबाज और ग़मगीन स्मृतियाँ धुल कर ताज़ी हो जाने के बाद भी जानती हूँ कि तन्हा शाम होती है गिद्ध अगर तुम रहो आज की तरह हर शाम ताउम्र मेरे साथ गिद्ध वापस लौट जाएंगे उदास चलते रह जाएंगे काले बादल अपनी ढेरों असफल चाल मैं बन जाऊंगी यह सिन्दूरी आसमान और तुम मेरे माथे की अमिट पहचान ! -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना 21/06/2016 ****************************

घड़ी की सूइयाँ

घड़ी की सूइयाँ   *********** सुबह नौ बजे  काॅलेज जाती है लड़की  घर से निकलते वक़्त  उसकी माँ  हर रोज़ देती है  कोई नसीहत  और  नज़रों से बिल्कुल ओझल हो जाने पर  देखती है  दीवार पर टंगी घड़ी की सूइयाँ   लड़की के जाने के बाद  माँ के हाथ जुड़ जाते हैं  ईश्वर की तस्वीर के सामने  कुछ बड़बड़ाते हुए  फिर दिन भर निपटाती है  घर के छोटे - बड़े काम  कुछ गुनगुनाते हुए  अचानक रूक जाती है  अनायास  देखती है घड़ी की सूइयाँ  जब बजती है काॅलबेल  और दरवाजे़ पर खड़ी मिलती है  सुबह की अमानत  माँ के सूखे होठों पर आ जाती है  इत्मीनान की एक मुस्कुराहट   नहीं कोई रैली  नहीं कोई चक्का जाम  नहीं लगती आग  हमेशा  इस शहर में  फिर भी जाने क्यों  हर रोज़ माँ देखती रहती है बारंबार  घड़ी की सूइयाँ -सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना

एक खतरनाक समय में