चींटियाँ पिछले दो-तीन दिनों से चींटियों ने काफ़ी परेशान कर रखा हैं।रोटियों का डब्बा हो या दालों के कंटेनर........सर्वत्र इनकी उपस्थिति।शायद यहाँ पेड़-पौधों के आधिक्य के कारण इनके भिन्न- भिन्न रूपों का दर्शन सुलभ है।जो भी हो, इसी बहाने मुझे याद आई....वर्षों पूर्व लिखी यह कविता.....जो चींटियों (या किन्हीं औरों) के वज़ूद और संघर्ष की तस्वीर रचने की एक छोटी कोशिश है। चींटियाँ वे जब तक संतुष्ट रहीं मरे पड़े कीड़े - मकोड़े खाकर हम इठलाते रहे अपनी बुद्धि पर धीरे - धीरे उनकी नज़रें ललचाईं वे बढ़ने लगीं चीनी के दानों और स्वादिष्ट मिष्ठानों की ओर यह गुस्ताखी हम सहन नहीं कर पाए क्योंकि हमारी धमनियों में बड़ी तेज़ रफ़्तार से दौड़ रहा था चटकदार लाल सामंती लहू हमने काट डाली कुछ की ज़बानें कुछ के सूक्ष्म पांव और कई को ज़िंदा जला डाला बाकी इस तरह डरीं सहमीं कि सदियों तक बेज़बान रहीं। पर आजकल तो गज़ब हो रहा है उन्हें भी मिलने लगी है हम जैसे स्थापित मानवों जैसी बुद्धि उन पर साक्षरता कार्यक्रम शायद असर कर गए हैं इसलिए हो रही हैं राजनीति में भी माहिर उनकी कतारबद्ध से...